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Wednesday, July 22, 2020

"विचारशक्ति के जागरण के लिये विचारों से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है।"

एक आदमी सोचता है, दूसरा आदमी समझता है। इसमें बडा फर्क है। जो समझता है उसमें विचार शक्ति जाग्रत है। जो सोचता है वह सोचता ही रहता है विचारों से आक्रांत होकर। विचारों की निरंतरता उसे समझने का मौका ही नहीं देती। विचार रुकें तो समझे भी सही।
सामान्यतया आदमी विचारों से समझने की कोशिश करता है। उसे कहा जाय विचार बंद करो। तो वह कहेगा फिर समझूंगा कैसे? समझने के लिये विचारना जरूरी है ऐसा उसे लगता है। सच यह है कि जो नहीं सोचता वही समझ सकता है। अब यह भी किसी मुसीबत से कम नहीं। विचार निरंतर उठते हैं यह सच है मगर उन्हें रोका नहीं जा सकता। रोकने पर संघर्ष होता है और नये नये विचार उठने लगते हैं। आदमी परेशान हो जाता है। फिर विश्वास भी होता है। विचार, विचार मालूम नहीं होते, तथ्य मालूम होते हैं। हर शब्द से विचार पैदा होते हैं और वे विचार जगत की सत्यता का आभास कराते हैं। लेकिन पीछे लौटा जाय विचार के मूल में शब्द को पहचान लिया जाय तो मौन घट सकता है। जैसे प्रेम शब्द सुनते ही विचार शुरू हो जाते हैं तो विचार न करके वापस प्रेम शब्द पर आ जायें। शत्रु शब्द सुनते ही शत्रु याद आने लगते हैं। शत्रु संबंधी विचार आने लगते हैं। उस समय केवल शत्रु शब्द पर ही ध्यान दिया जाय। मेरा मित्र कहता-शब्द भी नहीं बारहखड़ी देखनी चाहिए।
साधारणतया यह लोगों के लिए बडा मुश्किल होता है। वे विचारों से भरे होते हैं और विचार बडे वेग मेंं होते हैं।ऊपर से हर विचार के साथ विश्वास जुडा होता है।
भीतर से विचार उठते हैं तब आदमी यह थोडे ही समझता है कि विचार मात्र उठ रहे हैं। वे बाहर बडी बडी समस्याओं के सूचक होते हैं। विचारों से ही मालूम होता है कहां क्या है। मन क्या है? विचारों के समूह को ही तो मन कहते हैं।
कह सकते हैं मन ही जानकारी का स्रोत है। वह सब है विचार स्वरुप। विचार है तो कुछ जाना जा सकता है,नहीं तो कुछ नहीं। इसलिए जब विचारों को देखते हैं तब उन्हें तथ्यों से जोडकर नहीं देखना चाहिए। यह बहुत जरूरी है। जैसे कहा सुख या दुख,या भय या चिंता या क्रोधक्षोभ। तो वहां विश्वासपूर्ण चिंतन का होना बाधक है। सुख,सुख नहीं एक विचार है। दुख,दुख नहीं एक विचार है। भय एक विचार है,चिंता एक विचार है। क्रोध एक विचार है,क्षोभ एक विचार है। यह तो ठीक "मैं" भी एक विचार मात्र है, "दूसरा व्यक्ति" भी वस्तुतः एक विचार ही है। विचार के रुप में जानें,न कि तथ्य के रुप में। तथ्य के रुप में लेंगे तो विचार बलपूर्वक बढेंगे। उनका आवरण आयेगा और विक्षेप बढेगा। और एक उदाहरण-समस्या, समस्या नहीं अपितु एक विचार है। समस्या मानते हैं तो विचारों की तीव्रता बढेगी। समस्या एक विचार मात्र है तो क्या सोचना है? समस्या का विचार हो सकता है,विचार का क्या विचार हो सकता है? और है विचार ही या मन ही सबके मूल में मन नहीं तो कुछ नहीं। मन उपद्रव है। अमन शांति है। ऐसे मन से हम सत्य को समझ लें यह असंभव ही है। मन सत्य के अनुभव में परम बाधा है और यह बाधा भी इसलिए है क्योंकि हम मन के विषयों को सत्य मानते हैं।
मन में कोई व्यक्ति चल रहा हो तब क्या हम जानते हैं कि यह मन है या एक विचार मात्र है इसकी जगह हम व्यक्ति विशेष के चिंतन में खो जाते हैं। उस समय हमें ध्यान रहना सही है कि जिस व्यक्ति का हम चिंतन कर रहे हैं वह वस्तुतः मन है या एक विचार मात्र है। इसीलिए तो कहा है कि मन ही द्रष्टा बन जाता है,मन ही दृश्य बन जाता है। द्रष्टा बना मन,दृश्य बने मन को देखता है, प्रतिक्रिया करता है और इस प्रतिक्रिया में चित्त डूब जाता है। ये सब समझ में आये तो बाहरी जगत के उपद्रव बंद हों। यह समझ में आ जाये कि जिसे "बाहरी" कह रहे हैं वह एक विचार मात्र है, "आंतरिक" भी एक विचार मात्र है। अगर कहें "विश्वास" तो विश्वास भी एक विचार मात्र है, अविश्वास भी एक विचार ही है। सबके मूल में विचार को जान लिया जाय तो सारा जगत ही लुप्त हो जाय क्योंकि वह विचार से निर्मित होता है। विचार नहीं तो जगत भी नहीं। जगत विचारनिर्मित है। हमें विश्वास होता है जगत का जबकि विश्वास भी एक विचार है,जगत एक विचार है। इस तरह विचार को विचार की तरह देखना सीख जायें तो सभी मिथ्या भ्रमों का उपद्रव समाप्त हो सकता हैं। विचार ही बने हुए हैं सब कुछ यह जाना तो विचार चलेंगे कैसे, विचार से विचार तो चलने से रहे।विचार रुक जाते हैं तब जागरण होता है प्रज्ञा का,तब विचारशक्ति अपना कार्य शुरू करती है। अब ये थोडी अजीब बात है कि विचारशक्ति हो तो उपरोक्त बातों को समझा जा सकता है, विचार शक्ति है नहीं त़ो कैसे समझेंगे? सिर्फ एक संभावना है जिसका मन मौन हो गया, जिसके विचार आने बंद हो गये हैं, जिसमें समझ शक्ति आगयी है वह जब दूसरे को समझाता है और दूसरा रुचि लेकर समझने की कोशिश करता है तो उसकी समझ के बंद द्वार खुल सकते हैं। इसलिए मेहनत करे कोई तो दूसरे अनेक लोग लाभान्वित हो सकते हैं।कोई भी मेहनत न करे तो कुछ नहीं हो सकता लेकिन निराश होने की कोई बात नहीं इस ईश्वरीय योजना में ऐसा कोई न कोई समय समय पर होता रहता है जिसमें प्रज्ञाशक्ति जाग्रत होती है तथा सभी को उससे लाभ होता है। प्रज्ञाशक्ति हर एक में जाग्रत हो सकती है अगर वह विचार व वास्तविकता के फर्क को समझे। 

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