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Saturday, August 26, 2023

9 महीने 9 दिन गर्भ में बच्चा क्यों रहता है..क्या है बच्चे को महान बनाने का वैज्ञानिक उपाय?

लोग ज्योतिष पर बहुत कम विश्वास करते है क्योकि ज्योतिषियों ने ही ज्योतिष का विना श किया है उनके अधूरे ज्ञान के कारण ऐसा हुआ है। गर्भ मे बच्चा 9 महीने और 9 दिन ही क्यो रहता है। इसका एक वैज्ञानिक आधार है हमारे ब्रह्मांड के 9 ग्रह अपनी अपनी किरणों से गर्भ मे पल रहे बच्चे को विकसित करते हैं। हर ग्रह अपने स्वभाव के अनुरूप बच्चे के शरीर के भागों को विकसित करता है।अगर कोई ग्रह गर्भ मे पल रहे बच्चे के समय कमजोर है तो उपाय से उसको ठीक किया जा सकता है।

1. गर्भ से 1 महीने तक शुक्र का प्रभाव रहता है अगर गर्भावस्था के समय शुक्र कमजोर है तो शुक्र को मजबूत करना चाहिए। अगर शुक्र मजबूत होगा तो बच्चा बहुत सुंदर होगा । और उस समय स्त्री को चटपटी चीजे खानी चाहिए शुक्र का दान न करे अगर दान किया तो शुक्र कमजोर हो जाएगा।कुछ ज्योतिषी अधूरे ज्ञान के कारण शुक्र का दान करा देते है। दान सिर्फ उसी ग्रह का करे जो पा पी और क्रू र हो और उसके कारण गर्भपात का खतरा हो।

 2. दूसरे महीने मंगल का प्रभाव रहता है। मीठा खा कर मंगल को मजबूत करे तथा लाल वस्त्र ज्यादा धारण करें।

3. तीसरे महीने गुरु का प्रभाव रहता है। दूध और मीठे से बनी मिठाई या पकवान का सेवन करे तथा पीले वस्त्र ज्यादा धारण करें।

4. चौथे महीने सूर्य का प्रभाव रहता है। रसों का सेवन करे तथा महरून वस्त्र ज्यादा धारण करें।

 5. पांचवे महीने चंद्र का प्रभाव रहता है। दूध और दही तथा चावल तथा सफ़ेद चीजों का सेवन करे तथा सफ़ेद ज्यादा वस्त्र धारण करें।

6. छटे महीने शनि का प्रभाव रहता है। कसैली चीजों केल्शियम और रसों के सेवन करे तथा आसमानी वस्त्र ज्यादा धारण करें।

7. सातवे महीने बुध का प्रभाव रहता है जूस और फलों का खूब सेवन करे तथा हरे रंग के वस्त्र ज्यादा धारण करें।

8. आठवे महीने फिर चंद्र का तथा नौवे महीने सूर्य का प्रभाव रहता है। इस दौरान अगर कोई ग्रह नीच राशि गत भ्रमण कर रहा है तो उसका पूरे महीने यज्ञ करन चाहिए। जितना गर्भ ग्रहों की किरणों से तपेगा उतना ही बच्चा महान और मेधावी होगा जैसी एक मुर्गी अपने अंडे को ज्यादा हीट देती है तो उसका बच्चा मजबूत पैदा होता है। अगर हीट कम देगी तो उसका चूजा बहुत कमजोर होगा। उसी प्रकार माँ का गर्भ ग्रहों की किरणों से जितना तपेगा बच्चा उतना ही मजबूत होगा। जैसे गांधारी की आँ खों की किरणों के तेज़ से दुर्योधन का शरीर वज्र का हो गया था।
नोट:- हमारा आपसे यह भी आग्रह है कि लेख को पढ़ने के बाद अपने सुझावों से हमें अवश्य अवगत कराएं। इसी परस्पर की "हित भावना" से ही श्रेष्ठ की प्राप्ति होती है...

जय श्रीकृष्णा, जय गोविंदा ✨🙏💖🕉️

Friday, June 9, 2023

जानिए अमरनाथ का पूरा इतिहास ताकि आप भी अपने बच्चों को बता सकें..!

बाबा बर्फानी के दर्शन को अमरनाथ यात्रा शुरू हो गयी है। अमरनाथ यात्रा शुरू होते ही फिर से सेक्युलरिज्म के झंडबदारों ने गलत इतिहास की व्याख्या शुरू कर दी है कि इस गुफा को 1850 में एक मुसलिम बूटा मलिक ने खोजा था। पिछले साल तो पत्रकारिता का गोयनका अवार्ड घोषित करने वाले इंडियन एक्सप्रेस ने एक लेख लिखकर इस झूठ को जोर शोर से प्रचारित किया था। जबकि इतिहास में दर्ज है कि जब इस्लाम इस धरती पर मौजूद भी नहीं था, यानी इस्लाम पैगंबर मोहम्मद पर कुरान उतरना तो छोडि़ए, उनका जन्म भी नहीं हुआ था, तब से अमरनाथ की गुफा में सनातन संस्कृति के अनुयायी बाबा बर्फानी की पूजा अर्चना कर रहे है।

कश्मीर के इतिहास पर कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और नीलमत पुराण से सबसे अधिक प्रकाश पड़ता है। श्रीनगर से 141 किलोमीटर दूर 3888 मीटर की उंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा को तो भारतीय पुरातत्व विभाग ही 5 हजार वर्ष प्राचीन मानता है। यानी महाभारत काल से इस गुफा की मौजूदगी खुद भारतीय एजेंसियों मानती हैं। लेकिन यह भारत का सेक्यूलरिज्म है, जो तथ्यों और इतिहास से नहीं, मार्क्सवादी नेहरूवादियों के ‘परसेप्शन’ से चलता है। वही ‘परसेप्शन’ इस बार भी बनाने का प्रयास आरंभ हो चुका है।

राजतरंगिणी’ में अमरनाथ..!
अमरनाथ की गुफा प्राकृतिक है न कि मानव निर्मित। इसलिए पांच हजार वर्ष की पुरातत्व विभाग की यह गणना भी कम ही पड़ती है, क्योंकि हिमालय के पहाड़ लाखों वर्ष पुराने माने जाते हैं। यानी यह प्राकृतिक गुफा लाखों वर्ष से है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में इसका उल्लेख है कि कश्मीर के राजा सामदीमत शैव थे और वह पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा अर्चना करने जाते थे। ज्ञात हो कि बर्फ का शिवलिंग अमरनाथ को छोड़कर और कहीं नहीं है। यानी वामपंथी, जिस 1850 में अमरनाथ गुफा को खोजे जाने का कुतर्क गढ़ते हैं, इससे कई शताब्दी पूर्व कश्मीर के राजा खुद बाबा बर्फानी की पूजा कर रहे थे।

नीलमत पुराण और बृंगेश संहिता में अमरनाथ..!
नीलमत पुराण, बृंगेश संहिता में भी अमरनाथ तीर्थ का बारंबार उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में लिखा है कि अमरनाथ की गुफा की ओर जाते समय अनंतनया (अनंतनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी, सुशरामनगर (शेषनाग), पंचतरंगिरी (पंचतरणी) और अमरावती में यात्री धार्मिक अनुष्ठान करते थे। वहीं छठी में लिखे गये नीलमत पुराण में अमरनाथ यात्रा का स्पष्ट उल्लेख है। नीलमत पुराण में कश्मीर के इतिहास, भूगोल, लोककथाओं, धार्मिक अनुष्ठानों की विस्तृत रूप में जानकारी उपलब्ध है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गये वर्णन से पता चलता है कि छठी शताब्दी में लोग अमरनाथ यात्रा किया करते थे।

नीलमत पुराण में तब अमरनाथ यात्रा का जिक्र है जब इस्लामी पैगंबर मोहम्मद का जन्म भी नहीं हुआ था। तो फिर किस तरह से बूटा मलिक नामक एक मुसलमान गड़रिया अमरनाथ गुफा की खोज कर कर सकता है? ब्रिटिशर्स,मार्क्सवादी और नेहरूवादी इतिहासकार का पूरा जोर इस बात को साबित करने में है कि कश्मीर में मुसलमान हिंदुओं से पुराने वाशिंदे हैं। इसलिए अमरनाथ की यात्रा को कुछ सौ साल पहले शुरु हुआ बताकर वहां मुसलिम अलगाववाद की एक तरह से स्थापना का प्रयास किया गया है!

इतिहास में अमरनाथ गुफा का उल्लेख..!
अमित कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘अमरनाथ यात्रा’ नामक पुस्तक के अनुसार, पुराण में अमरगंगा का भी उल्लेख है, जो सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी। अमरनाथ गुफा जाने के लिए इस नदी के पास से गुजरना पड़ता था। ऐसी मान्यता था कि बाबा बर्फानी के दर्शन से पहले इस नदी की मिट्टी शरीर पर लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं। शिव भक्त इस मिट्टी को अपने शरीर पर लगाते थे।

पुराण में वर्णित है कि अमरनाथ गुफा की उंचाई 250 फीट और चौड़ाई 50 फीट थी। इसी गुफा में बर्फ से बना एक विशाल शिवलिंग था, जिसे बाहर से ही देखा जा सकता था। बर्नियर ट्रेवल्स में भी बर्नियर ने इस शिवलिंग का वर्णन किया है। विंसेट-ए-स्मिथ ने बर्नियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का संपादन करते हुए लिखा है कि अमरनाथ की गुफा आश्चर्यजनक है, जहां छत से पानी बूंद-बूंद टपकता रहता है और जमकर बर्फ के खंड का रूप ले लेता है। हिंदू इसी को शिव प्रतिमा के रूप में पूजते हैं। ‘राजतरंगिरी’ तृतीय खंड की पृष्ठ संख्या 409 पर डॉ. स्टेन ने लिखा है कि अमरनाथ गुफा में 7 से 8 फीट की चौड़ा और दो फीट लंबा शिवलिंग है। कल्हण की राजतरंगिणी द्वितीय, में कश्मीर के शासक सामदीमत 34 ई.पू से 17 वीं ईस

Wednesday, May 31, 2023

अद्भुद चमत्कार जब एक बंदर के रूप में हनुमान जी हनुमानगढ़ी में रखें बम से भक्तों को बचाया।

अद्भुद चमत्कार हनुमान जी का जब एक बंदर के रूप में हनुमानगढ़ी में रखें गए बम से भक्तों को बचाया। इस घटना को जिओ सिनेमा पर उपलब्ध इंस्पेक्टर अविनाश सीरीज में दिखाया गया है। हम बात कर रहे हैं श्री हनुमान गढ़ी मंदिर अयोध्या की, साल 1998 का एक अघोषित दिन। मंदिर परिसर में लगे ठंडे पानी की मशीन के पास बैठा एक छोटा सा वानर मुंह में दो बिजली के तारों को लिए चबाए जा रहा था, मानों कोई फल हो, पूरा मंदिर खाली करा लिया गया था। एक-एक श्रद्धालु और एक-एक दर्शनार्थी को बाहर  केवल पुलिस बल और बम निरोधक दस्ता वहां उस समय हनुमान गढ़ी मंदिर के भीतर था और वे सभी के सभी उस छोटे से वानर को बिजली का तार चबाते हुए देख रहे थे।
सवाल है कि मंदिर पूरा खाली क्यों था और पुलिस के साथ में बम निरोधक दस्ता वहां क्या कर रहा था? इसे थोड़े से में बता रहा हूं क्योंकि 1998 में घटी ये सत्य घटना आज तक किसी अखबार या न्यूज चैनल में दिखाई नही गई है, अयोध्या के अति संवेदनशील होने के कारण। साल 1998 में करीब बीस किलो आरडीएक्स अयोध्या में आने की खबर उत्तर-प्रदेश की एसटीएफ यानी विशेष पुलिस दस्ते को लगी थी, जिसमे से अधिकांशतः आरडीएक्स को समय रहते पुलिस की मुस्तैदी से जब्त कर लिया गया और अयोध्या में किसी प्रकार का धमाका नही हुआ। परंतु एक आतं'की बम निरोधक दस्ते का भेष बनाकर अयोध्या के सबसे प्राचीन मन्दिर हनुमान गढ़ी मंदिर में घुस गया और उसने टाइमर सेट करके वहां ठंडे पानी की मशीन के पास में बम लगा दिया। जब तक पुलिस ने उसे बाहर भागते समय पकड़ा और पूछताछ शुरू की तब तक केवल एक मिनट का समय शेष रह गया था मंदिर में बम के विस्फोट के लिए, ऐसा उस आतंकी ने स्वयं बताया था।
आनन-फानन में पूरा का पूरा पुलिस बल जिसका नेतृत्व इंस्पेक्टर अविनाश मिश्रा कर रहे थे, मंदिर में घुसे और वो टाइम बम को खोजने लगे, मंदिर का हर एक कोना हर एक गलियारा छान मारा पर बम जैसा कुछ भी किसी को दिखाई नही दे रहा था की तभी सबने देखा। मंदिर के प्रांगण में लगे ठंडे पानी की मशीन के पास एक छोटा वानर बैठकर अपने हाथों में तार लिए उनसे खेल रहा था और मुंह में लेकर चबाए जा रहा था, जैसे कुछ काट रहा हो, पुलिस को अंदेशा हो गया की हो ना हो इसी मशीन में बम फिट किया गया है, उन्होंने उस वानर के मुंह से तार छुड़ाने के लिए केले उसकी ओर फेंके। केले जैसे ही उस वानर की ओर फेंके गए वैसे ही वो तार छोड़कर बिना केले लिए वहां से उठ कर चला गया या यूं कहूं लुप्त हो गया। तुरंत ही बम निरोधक दस्ता वहां बुलवाया गया और जैसे ही मशीन खोली गई, उसमे से एक टाइमर सेट किया गया बम पाया गया।
एक सिपाही।
"सर इस बम को तो डिफ्यूज (नष्ट) किया जा चुका है, ये देखिए टाइमर 3 सेकेंड पर रुक चुका है, उस छोटे से बंदर ने तार काटकर बम को फटने से रोक दिया है"। बड़े उत्साह के साथ बम निरोधक दस्ते के उस सिपाही ने सूचना दी और कुछ ही देर में सारे पुलिस बल ने हनुमान गढ़ी मंदिर के शिखर पर वही छोटे से वानर को देखा, जो शिखर के कलश को सहला रहा था। आप ही बताइए वो छोटा सा वानर था या फिर भक्त प्रवर श्री हनुमान जी महाराज संसार से कुछ कह रहे थे। निश्चित ही वो हनुमान थे और वो ये डंके की चोट पर सारे संसार को बता रहे थे कि अवध मेरे प्रभु श्रीराम की है और इसकी ओर जब-जब संकट आएगा तब-तब एक वानर आकर इस अवध की रक्षा करेगा, अपने प्रभु की परम प्रिय नगरी पर आंच भी नही आने देगा। "जय श्री राम"

मंदिर की पैड़ी पर कुछ देर बैठकर भगवान से क्या प्रार्थना किया जाता है?

बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि जब भी किसी मंदिर में दर्शन के लिए जाएं तो दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पेडी या ऑटले पर थोड़ी देर बैठते हैं। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? नही न आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठकर अपने घर की व्यापार की राजनीति की चर्चा करते हैं परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई थी। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर के हमें एक श्लोक बोलना होता हैं। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। आप इस लोक को सुनें और आने वाली पीढ़ी को भी इसे बताएं।

"अनायासेन मरणम् ,बिना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम् ।।"

इस श्लोक का अर्थ है। अनायासेन मरणम्..! अर्थात बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और हम कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर पड़े पड़े ,कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हो चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।

बिना देन्येन जीवनम्..! अर्थात परवशता का जीवन ना हो मतलब हमें कभी किसी के सहारे ना पड़े रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हो। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सके।

देहांते तव सानिध्यम ..! अर्थात जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।

देहि में परमेशवरम्..! अर्थात हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।

यह प्रार्थना करें गाड़ी ,लाडी ,लड़का ,लड़की, पति, पत्नी ,घर धन यह नहीं मांगना है यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है जैसे कि घर, व्यापार, नौकरी ,पुत्र ,पुत्री ,सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है वह भीख है। हम प्रार्थना करते हैं प्रार्थना का विशेष अर्थ होता है अर्थात विशिष्ट, श्रेष्ठ अर्थना अर्थात निवेदन। भगवान श्री कृष्ण जी से प्रार्थना करें और प्रार्थना क्या करना है, यह श्लोक बोलना है।

सबसे जरूरी बात ;
जब हम मंदिर में दर्शन करने जाते हैं तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए, निहारना चाहिए। उनके दर्शन करना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं । आंखें बंद क्यों करना हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का ,मुखारविंद का, श्रंगार का, संपूर्णानंद लें। आंखों में भर ले स्वरूप को। दर्शन करें और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें मंदिर में नेत्र नहीं बंद करना। बाहर आने के बाद पैड़ी पर बैठकर जब भगवान श्री कृष्ण जी का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर भगवान श्री कृष्ण जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें। नेत्रों को बंद करने के पश्चात उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।

Saturday, May 27, 2023

विश्व का सबसे बड़ा युद्ध महाभारत का कुरुक्षेत्र युद्ध जिसमे किया गया था चक्रव्यूह रचना।

विश्व का सबसे बड़ा युद्ध था, महाभारत का कुरुक्षेत्र युद्ध। इतिहास में इतना भयंकर युद्ध केवल एक बार ही घटित हुआ था। अनुमान है कि महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध में परमाणू हथियारों का उपयॊग भी किया गया था। ‘चक्र’ यानी ‘पहिया’ और ‘व्यूह’ यानी ‘गठन’। पहिए के जैसे घूमता हुआ व्यूह है चक्रव्यूह। कुरुक्षेत्र युद्ध का सबसे खतरनाक रण तंत्र था चक्रव्यूह। यधपि आज का आधुनिक जगत भी चक्रव्यूह जैसे रण तंत्र से अनभिज्ञ हैं। चक्रव्यू या पद्मव्यूह को बेधना असंभव था। द्वापरयुग में केवल सात लोग ही इसे बेधना जानते थे। भगवान कृष्ण के अलावा अर्जुन, भीष्म, द्रॊणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थाम और प्रद्युम्न ही व्यूह को बेध सकते थे जानते हैं। अभिमन्यु केवल चक्रव्यूह के अंदर प्रवेश करना जानता था।

चक्रव्यूह में कुल सात परत होती थी। सबसे अंदरूनी परत में सबसे शौर्यवान सैनिक तैनात होते थे। यह परत इस प्रकार बनाये जाते थे कि बाहरी परत के सैनिकों से अंदर की परत के सैनिक शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा बलशाली होते थे। सबसे बाहरी परत में पैदल सैन्य के सैनिक तैनात हुआ करते थे। अंदरूनी परत में अस्र शत्र से सुसज्जित हाथियों की सेना हुआ करती थी। चक्रव्यूह की रचना एक भूल भुलैय्या के जैसे हॊती थी जिसमें एक बार शत्रू फंस गया तो घन चक्कर बनकर रह जाता था।

क्रव्यूह में हर परत की सेना घड़ी के कांटे के जैसे ही हर पल घूमता रहता था। इससे व्यूह के अंदर प्रवेश करने वाला व्यक्ति अंदर ही खॊ जाता और बाहर जाने का रास्ता भूल जाता था। माहाभारत में व्यूह की रचना गुरु द्रॊणाचार्य ही करते थे। चक्रव्यूह को युग का सबसे सर्वेष्ठ सैन्य दलदल माना जाता था। इस व्यूह का गठन युधिष्टिर को बंधी बनाने के लिए ही किया गया था। माना जाता है कि 48*128 किलॊमीटर के क्षेत्र फल में कुरुक्षेत्र नामक जगह पर युद्ध हुआ था जिसमें भाग लेने वाले सैनिकों की संख्या 1.8 मिलियन था!

चक्रव्यूह को घुमता हुआ मौत का पहिया भी कहा जाता था। क्यों कि एक बार जो इस व्यूक के अंदर गया वह कभी बाहर नहीं आ सकता था। यह पृथ्वी की ही तरह अपने अकस में घूमता था साथ ही साथ हर परत भी परिक्रमा करती हुई घूमती थी। इसी कारण से बाहर जाने का द्वार हर वक्त अलग दिशा में बदल जाता था जो शत्रु को भ्रमित करता था। अध्भुत और अकल्पनीय युद्ध तंत्र था चक्रव्यूह। आज का आधुनिक जगत भी इतने उलझे हुए और असामान्य रण तंत्र को युद्ध में नहीं अपना सकता है। ज़रा सॊचिये कि सहस्र सहस्र वर्ष पूर्व चक्रव्यूह जैसे घातक युद्ध तकनीक को अपनाने वाले कितने बुद्धिवान रहें होंगे।

चक्रव्यूह ठीक उस आंधी की तरह था जो अपने मार्ग में आनेवाले हरस चीच को तिनके की तरह उड़ाकर नष्ट कर देता था। इस व्यूह को बेधने की जानकारी केवल सात लोगों के ही पास थी। अभिमन्यू व्यूह के भीतर प्रवेश करना जानता था लेकिन बाहर निकलना नहीं जानता था। इसी कारण वश कौरवों ने छल से अभिमन्यू की हत्या कर दी थी। माना जाता है कि चक्रव्यूह का गठन शत्रु सैन्य को मनोवैज्ञानिक और मानसिक रूप से इतना जर्जर बनाता था कि एक ही पल में हज़ारों शत्रु सैनिक प्राण त्याग देते थे। कृष्ण, अर्जुन, भीष्म, द्रॊणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थाम और प्रद्युम्न के अलावा चक्रव्यूह से बाहर निकलने की रणनीति किसी के भी पास नहीं थी।

अपको जानकर आश्चर्य होगा कि संगीत या शंख के नाद के अनुसार ही चक्रव्यूह के सैनिक अपने स्थिती को बदल सकते थे। कॊई भी सेनापती या सैनिक अपनी मन मर्ज़ी से अपनी स्थिती को बदल नहीं सकता था। अद्भूत अकल्पनीय। सदियों पूर्व ही इतने वैज्ञानिक रीति से अनुशासित रण नीती का गठन करना सामान्य विषय नहीं है। माहाभारत के युद्ध में कुल तीन बार चक्रव्यूह का गठन किया था, जिनमें से एक में अभिमन्यू की म्रुत्यू हुई थी। केवल अर्जुन ने कृष्ण की कृपा से चक्रव्यूह को बेध कर जयद्रत का वध किया था। हमें गर्व होना चाहिए कि हम उस देश के वासी है जिस देश में सदियों पूर्व के विज्ञान और तकनीक का अद्भुत निदर्शन देखने को मिलता है। निस्संदेह चक्रव्यूह न भूतो न भविष्यती युद्ध तकनीक था। न भूत काल में किसी ने देखा और ना भविष्य में कॊई इसे देख पायेगा।

मध्य प्रदेश के 1 स्थान और कर्नाटक के शिवमंदिर में आज भी चक्रव्यूह बना हुआ है।

Wednesday, May 24, 2023

रामभद्राचार्य जी है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में रामलला के पक्ष में वेद पुराण के उद्धारण के साथ गवाही दी थी।

ये वही रामभद्राचार्य जी है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में रामलला के पक्ष में वेद पुराण के उद्धारण के साथ गवाही दी थी। सनातन धर्म को दुनिया का सबसे पुराना धर्म कहा जाता है। वेदों और पुराणों के मुताबिक सनातन धर्म तब से है जब ये सृष्टि ईश्वर ने बनाई। जिसे बाद में साधू और संन्यासियों ने आगे बढ़ाया। ऐसे ही आठवीं सदी में शंकराचार्य आए, जिन्होंने सनातन धर्म को आगे बढ़ाने में मदद की। पद्मविभूषण रामभद्राचार्यजी एक ऐसे संन्यासी हैं जो अपनी दिव्यांगता को हराकर जगद्गुरू बने। आइए जानते हैं उनके सांसारिक जीवन के बारे कुछ अनसुने बाते।


1. जगद्गुरु रामभद्राचार्य चित्रकूट में रहते हैं। उनका वास्तविक नाम गिरधर मिश्रा है, उनका जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में हुआ था।

2. रामभद्राचार्य एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं।

3. वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर साल 1988 से प्रतिष्ठित हैं।

4. रामभद्राचार्य चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक हैं और आजीवन कुलाधिपति हैं।

5. जगद्गुरु रामभद्राचार्य जब सिर्फ दो माह के थे तभी उनके आंखों की रोशनी चली गई थी।

6. वे बहुभाषाविद् हैं और 22 भाषाएं जैसे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में कवि और रचनाकार हैं।

7. उन्होंने 80 से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में ) हैं। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है।

8. चिकित्सक ने गिरिधर की आँखों में रोहे के दानों को फोड़ने के लिए गरम द्रव्य डाला, परन्तु रक्तस्राव के कारण गिरिधर के दोनों नेत्रों की रोशनी चली गयी।

9. वे न तो पढ़ सकते हैं और न लिख सकते हैं और न ही ब्रेल लिपि का प्रयोग करते हैं। वे केवल सुनकर सीखते हैं और बोलकर अपनी रचनाएं लिखवाते हैं।

10. साल 2015 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया"।

कैसी लगी आपको हमारी लेख कमेंट कर जरूर बताएं।

Wednesday, April 5, 2023

हर शुभ कार्य से पहले क्यों बनाया जाता है स्वास्तिक, जानिए इसका कारण और रहस्य?

स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल और शुभता का प्रतीक माना जाता रहा है। हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले स्वास्तिक का चिन्ह अवश्य बनाया जाता है। स्वास्तिक शब्द सु+अस+क शब्दों से मिलकर बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा या शुभ,'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं,अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है।

'स्वस्तिक' अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है,जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। स्वस्तिक को ऋग्वेद की ऋचा में सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है।

सिद्धान्तसार नामक ग्रन्थमें उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोडऩे के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है। मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। स्वस्तिक में भगवान गणेश और नारद की शक्तियां निहित हैं। स्वस्तिक को भगवान विष्णु और सूर्य का आसन माना जाता है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गणेश की शक्ति का स्थान 'गं' बीज मंत्र होता है।

Monday, November 28, 2022

वो जगह जहां कर्ण का हुआ था अंतिम संस्कार, हजारों साल से यहां के पेड़ में लगे हैं केवल तीन पत्ते...

सूरत: सनातन परंपरा की धरती भारत में ऐसे कई रहस्य हैं, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। ऐसी ही एक जगह है सूरत शहर का बरछा इलाका, जहां महाबली कर्ण का अंतिम संस्कार हुआ था। यहां के लोग कहते हैं कि कर्ण की इच्छा के मुताबिक भगवान कृष्ण ने खुद ही उनका अंतिम संस्कार किया था। कहा जाता है कि केवल एक इंच ज़मीन पर कर्ण का अंतिम संस्कार हुआ था। यहीं पर केवल एक इंच भूमि ही ऐसी थी जहां इसके पहले किसी का शवदाह नहीं हुआ था और इतनी कम भूमि पर शव रखना और उसका दहन करना संभव नहीं हो सकता था। भगवान कृष्ण ने उस भूमि के टुकड़े पर एक बाण रखकर उसके ऊपर कर्ण का शरीर रखा और अंतिम संस्कार किया।


अब आपके जहन में ये बात आ रही होगी कि आखिर एक इंच जमीन पर क्यों हुआ कर्ण का अंतिम संस्कार? इसके पीछे एक बड़ी कहानी है। दरअसल महाभारत में युद्ध के 17वें दिन महायोद्धा कर्ण की मृत्यु हो गई थी। भगवान कृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने दिव्यास्त्र की सहायता से कर्ण को मारने में सफलता पाई थी। मान्यता है कि कर्ण की वीरता और दानवीरता से प्रसन्न भगवान कृष्ण ने उनके जीवन के अंतिम क्षणों में एक वरदान मांगने को कहा था। कर्ण ने उनसे ऐसी भूमि पर अपना अंतिम संस्कार किए जाने की इच्छा जताई थी, जहां उसके पहले कभी किसी का अंतिम संस्कार न हुआ हो।

कर्ण की जब मृत्यु हुई तो भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण की इच्छानुसार जमीन खोजने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन पूरी पृथ्वी पर भूमि का कोई ऐसा टुकड़ा नहीं मिला, जहां उसके पहले किसी व्यक्ति की अंतिम क्रिया न हुई हो। केवल सूरत शहर में ताप्ती नदी के किनारे एक इंच भूमि ऐसी मिली, जहां उसके पहले कभी किसी का शवदाह नहीं हुआ था और फिर यहां उनका अंतिम संस्कार किया गया। सूरत शहर में यह स्थान अब 'तुल्सीबड़ी मंदिर' के रूप में जाना जाता है जिसकी आसपास के लोगों में बड़ी श्रद्धा है।


यहां आए श्रद्धालुओं का मानना है कि ताप्ती नदी के किनारे इस मंदिर की बड़ी मान्यता है और हजारों लोग इसके दर्शन के लिए आते हैं। यहीं पर एक गोशाला स्थापित की गई है जहां गायों की सेवा की जाती है। पूरी एरिया में इस मंदिर के प्रति लोगों की असीम श्रद्धा है और हर वर्ग के लोग इसके दर्शन करने आते हैं। इसके समीप ही बागनाथ मंदिर भी है। यहां तीन पत्ता बड़ का मंदिर भी है। यहां बरगद का एक पेड़ है जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि इसकी उम्र हजारों साल की है, लेकिन इसमें आज तक केवल तीन ही पत्ते आए हैं। तीनों पत्ते सदाबहार रहते हैं, ये आज भी हरे-भरे हैं। लेकिन इसमें कभी कोई नया पत्ता नहीं आता। इस बड़ (बरगद) को घेरकर एक मंदिर बना दिया गया है जहां आसपास के लोग दर्शन के लिए आते हैं। अमावस और पूर्णिमा को यहां आने वाले श्रद्धालुओं-दर्शकों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। ताप्ती नदी के किनारे तीन पत्ते बड़ वाला यह मंदिर लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है।

Saturday, November 12, 2022

तीर्थ यात्रा के दौरान का मेरा अनुभव। और VIP व्यवस्था जो की भगवान के दर्शन के दौरान देखने और लेने पड़ते हैं।

समय ज़्यादा दूर नहीं जब भगवान ख़ुद चल कर भक्त के घर तक पहुँचेंगे, फ़्री में दर्शन करने हैं तो सुबह चार बजे से लाइन लगाओ। फिर जा कर भगवान का गर्भगृह के दरवाजे से पूरे धक्का मुक्की के साथ दूर से दर्शन करो। पूर्वांचल की भाषा में कहे तो बिना टिकट जनरल डिब्बे के जैसे। तत्पशाचात आता है अगली श्रेणि जिसमे भगवान के दर्शन के लिए 15 रुपए या उससे ज्यादा का होता हैं, जिसमें समझ लो जनरल डिब्बे की टिकट के साथ रेल का सफ़र भगवान दर्शन तो देंगे गर्भगृह के दरवाजे से थोड़ा कम धक्का मुक्की के। उसके बाद अगली व्यवस्था 250 रुपए या उससे अधिक का होता हैं टिकट लेकर दर्शन की ( वो स्लीपर क्लास के जैसे समझ लो ) मतलब हर कोई ये व्यवस्था लेकर दर्शन की लाइन में लगेगा लेकिन दर्शन दूर से करेगा। थोड़ा उससे कम धक्का मुक्की के साथ अगली व्यवस्था 750 रुपए या उससे ज्यादा का जिसमें भक्त गर्भग्रह में जा सकता है , भगवान को हाथ लगा सकता है , जल चढ़ा सकता है , अभिषेक कर सकता है। अकेले या गर्भगृह के पंडित जी के साथ।

अगली व्यवस्था है 3000 रुपए या उससे अधिक वाली जिसमें भक्त के साथ एक पंडित भी रहेगा, वो गर्भग्रह में भगवान के सामने 5 मिनट के लिए आपसे पूजा करवाएगा, जल चढ़वाएगा, अभिषेक करवाएगा मंत्रोच्चरण के साथ। अगली व्यवस्था है 6000 रुपए या उससे अधिक वाली जिसमें भक्त के साथ पंडित और फ़ोटो ग्राफ़र भी जाएगा और जाता भी हैं।
  
💐 जल्द ही निम्नलिखित व्यवस्था देखने को मिलेंगी। 

🚩 अगली व्यवस्था होगी 6 लाख वाली जिसमें भक्त और उसके परिवार को भगवान विशेष दर्शन देंगे।

🚩 अगली व्यवस्था 6 करोड़ वाली जिसमें भगवान मंदिर से पालकी में निकल कर भक्त के hotel जाकर उसके रूम में दर्शन देंगे। 

🚩 अगली व्यवस्था होगी 100 करोड़ वाली जिसमें भगवान मंदिर से पालकी से निकल कर सीधे भक्त के घर दर्शन देने जाएँगे। 

🚩 लास्ट हज़ार करोड़ कोई देगा तो भगवान भक्त के घर ही अपना आसन लगा लेंगे। 

ये बहुत दुःखद हैं जो हमारे भगवान का नहीं सिस्टम का उपहास है जिसमें सिस्टम ने भगवान को बेचना शुरू कर दिया है। 

कोई इसे भगवान की आलोचना ना समझे यह सही हैं हमने अनुभव किया है, जो व्यापार बनता जा रहा है।🙏

Thursday, August 4, 2022

"रक्षाबंधन" हमने क्या क्या खो दिया इस बदलाव को पाते पात...

बहनें 200 से 1500/- की राखियाँ ख़रीद कर भाईयों काे बॉंधती हैं। जबकि राखी एक तीन रंग की माेली धागे सें प्रारंम्भ हुआ त्याेहार था, जिसकाे राखियाँ बनाने वाले उत्पादक 2000/- की राखी तक ले गये हैं। आप हम देखते हैं कि यह एक भावनाओं का त्याेहार हैं। बहनें लंम्बी दूरी सें भाई काे राखी बांधने व सम्मान पाने व भाई के परिवार को खुशियां देने आती हैं। राखी बांधनें का मतलब है भाई, तुम दीर्घायु हों और मेरी बुरे समय में रक्षा करना। परन्तु आज के दौर में बहनें भी इस होड में लगी हैं कि मेरी राखी सब से महंगी हो ताकि उसकी भाभीयां ये ताना ना मारें कि ननद बाईसा तो इसी राखी लावे सफा ही की पूछो मत, पर क्या वह महंगी राखी दिखावा बनकर नहीं रह गई? 

क्या हमने बहन को नीचा दिखाने के लिए घर बुलाया है या उसे यह अहसास दिलवाने कि अभी तेरा भाई है, तु फिक्र ना कर बहना। रक्षाबंन्धन पर भाई भी अपनी बहनाें काे उपहार रूप में काेई चीज व नगद देते हैं। लेकिन आजकल 50% ऐसा हाेता हमने देखा हैं कि बहन की राखी लागत ही उपहार में नहीं निकलती हैं। इसलिए हम कुछ ज़्यादा बहन काे देने की सोचते हैं, हमने इस चकाचौंध की जीवनशैली के कारण भाई-बहन के प्यार को पैसे के तराजू मे ही रख दिया। सभी भाइयों काे प्रण करना चाहिये कि हम सिर्फ बहन सें माेली धागा ही बंधवायेगें और मिठाई में सिर्फ गुड। और जाे देना हैं बहन काे वह देते रहेंगे। 

आप हम देखते हैं, कि राखियाँ हम सब 2-4 घंटे या सायं तक ही बाँधे रख पा रहे हैं और बहन का सैकडों रूपया उस राखी पर लगा धन था। जाे कुछ ही घंटे में स्क्रेप हाे गया। कृपया सुधार करके अपनें पुरानें माेली धागा या रेशम की सुन्दर गुँथी राखी बाँधे ताे आपका बीरा (भाई ) साल भर भी बांधे रखेगा। और यह बहन के लिए गर्व की बात होगी कि मेरा बिरा मेरे रक्षा के सूत्र को सदा बांधे रखता है। वहीं भाई को भी सदा बहन का स्मरण रहेगा कि मेरी बहन है मुझे सदा प्यार व दुलार बरसाने वाली। 

निवेदन - इसको सकारात्मक लें और युद्ध स्तर पर इसको समाज में प्रचलन में लाकर इसका परिवार सहित पालन करें, वहीं भाई बहन के प्यार को पैसे के तराजू में ना तोलें...


Tuesday, May 24, 2022

Gyanvapi case 1991: आज हम ऐसे हिंदू सनातनीय से मिलाने जा रहे है जो मुस्लिम बन कर मस्जिद में गए और साक्ष्य इक्कठा किए।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद पर विवाद गहराता जा रहा है। हाल ही में खत्म हुए सर्वे की लीक रिपोर्ट का हवाला देकर कहा जा रहा है कि मस्जिद में मंदिर के कई प्रमाण मिले हैं। ऐसे में एक शख्स ऐसा भी है जो मस्जिद से मंदिर के प्रमाण जुटाने के लिए मुस्लिम बनकर ज्ञानवापी में प्रवेश किया। हम बात कर रहे हैं हरिहर पांडेय जी की। इस मामले पर हरिहर पांडेय जी ने न्यूज चैनल ज़ी न्यूज से खास बातचीत की है। जिसमे उन्होंने कुछ चौकाने वाले तथ्य और जानकारी रखी। आइये जानते हैं हरिहर पांडेय जी ने 1991 में ज्ञानवापी में क्या क्या देखा था।

1991 के ज्ञानवापी मुकदमे के मुख्य पक्षकार हरिहर पाण्डेय ने Zee News से Exclusive बातचीत में बताया कि वो 1991 में मंदिर के सबूतों को इकट्ठा करने के लिए मुस्लिम बन ज्ञानवापी परिसर में पहुंचे थे। उन्होंने कहा कि वो बाबा विश्वनाथ के पक्ष में सबूत इकट्ठा करने ज्ञानवापी परिसर में गए थे। हरिहर जी ने कहा, 'उस वक्त मैं रात 1 बजे जालीदार टोपी पहनकर ज्ञानवापी परिसर में गया। मैंने मंदिर का ढांचा देखा, मैंने अपनी आंखों से मंदिर के सबूत देखे और कोर्ट को आकर बताया'। उन्होंने कहा, 'मैंने कलश, कमल, हाथी, मगरमच्छ की आकृतियां देखीं। मैंने देखा कि मंदिर के मलबे को पत्थरों से ढक कर रखा गया है और उसके ऊपर इमारत बनाई गई है। मलबा हटाना चाहिए, मलबा हटेगा तो ज्योतिर्लिंग दिखेगा। परिसर में कई शिवलिंग मिलेंगे l हरिहर पांडेय जी ने आगे बताया कि उनके खुलासे के बाद मुस्लिम पक्ष उनसे मिलने पहुंचा था और पूछा था कि समाधान के क्या विकल्प हैं? उन्होंने कहा, 'मैंने मुस्लिम पक्ष को बताया कि सड़क किनारे मेरी 8 बीघे जमीन आप ले लीजिए और मस्जिद शिफ्ट कर लीजिए, वो तैयार नहीं हुए। मैंने फिर कहा कि हम मंदिर लेकर रहेंगे और फिर मुस्लिम पक्ष चला गया। मैं ही आखिरी व्यक्ति इस केस में जिंदा बचा हूं, मेरे साथ के दो पक्षकारों की मौत हो चुकी है। मैं आखिरी सांस तक यह केस लड़ूंगा, मेरे बाद मेरे बेटे लड़ेंगे लेकिन बाबा विश्वनाथ को आजाद कराएंगे'l

हरिहर पाण्डेय जी ने कहा कि देश की जनता को यह भी पता होना चाहिए कि ज्ञानकूप और ज्ञानवापी का अर्थ क्या है? उन्होंने कहा कि जब शिवजी.. पार्वती जी के साथ काशी आए तो स्वयंभू ज्योतिर्लिंग के जलाभिषेक के लिए जल की आवश्यकता थी, तो शिवजी ने अपने त्रिशूल से ज्ञानकूप बनाया और फिर जलाभिषेक हुआ। पार्वती जी को इसी स्थान पर शिवजी ने ज्ञान दिया, इसीलिए यह परिसर ज्ञानवापी कहलाता हैl

भगवान श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का सच पूरे देश के सामने रखा। श्री हरिहर पांडे जी और उनके परिवार को उच्च श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए क्योंकि वह एक अति महत्वपूर्ण जीवित साक्ष्य हैं और उनके बाद उनके बेटे को भी खतरा बढ़ गया है। वैसे तो अभी दो पुलिस कांस्टेबल हरिहर पांडे जी की सुरक्षा में तैनात हैं लेकिन यह सुरक्षा हिंसक जिहादी मजहब वाले शत्रुओं का सामना करने में सक्षम नहीं हो सकेगी क्योंकि ज्ञान वापी मंदिर का मुद्दा इस समय विस्फोटक बना हुआ है और अंतरराष्ट्रीय जिहादी आतंकियों के निशाने पर आज हर वह हिंदू है जिसने ज्ञान वापी मंदिर के लिए न्यायालय में वाद प्रस्तुत किया है।

Saturday, May 7, 2022

महाभारत में चक्रव्यूह क्या था, इस युद्ध मे और कितने प्रकार के व्यूहों का उपयोग हुआ? आइये जानते हैं।

चक्रव्यूह का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रंथ महाभारत में हुआ है। इस व्यूह की रचना गुरु द्रोणाचार्य ने युद्ध के तेरहवें दिन की थी। अर्जुन के अतिरिक्त और कोई भी चक्रव्यूह भेदन नहीं जानता था। युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह की रचना की गयी थी। दुर्योधन इस चक्रव्यूह के बिलकुल मध्य में था। इस व्यूह में बाकी सात महारथी व्यूह की विभिन्न परतों में थे। व्यूह के द्वार पर जयद्रथ था।
अभिमन्यु ही इस व्यूह को भेदने में सफल हो पाया पर वह भी अंतिम द्वार(यानी परत) को पार नहीं कर सका तथा बाद में सात महारथियों द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी। महाभारत युद्ध में पांडवों और कौरवों द्वारा कुछ और व्यूह रचे गए थे जो निम्न हैं।
महाभारत ग्रंथ के अनुसार व्यूह-रचना।
1. गरुड़-व्यूह
2. क्रौंच व्यूह
3. श्येन व्यूह 
4. सुपर्ण(गरुड़) व्यूह
5. सारंग व्यूह
6. सर्प व्यूह
7. खड्ग सर्प व्यूह
8. शेषनाग व्यूह 
9. मकर व्यूह
10. कुर्मा(कछुआ) व्यूह
11. वराह व्यूह
12. महिष व्यूह  
13. त्रिशूल व्यूह
14. चक्र व्यूह
15. अर्धचन्द्र व्यूह
16.  कमल व्यूह
17.  उर्मि व्यूह
18.  मंडल व्यूह
19.  वज्र व्यूह
20.  चक्रशकट व्यूह 
21.  शकट व्यूह, 
22.  सर्वतोभद्र व्यूह 
23.  शृंगघटक व्यूह
24.  चन्द्रकाल व्यूह 
25.  कमल व्यूह
26.  देव व्यूह
27.  असुर व्यूह
28.  सूचि व्यूह
29.  श्रीन्गातका व्यूह
30.  चन्द्र कला  
31.  माला व्यूह  
32.  पद्म व्यूह
33.  सूर्य व्यूह
34.  दण्डव्यूह 
35.  गर्भव्यूह 
36.  शंखव्यूह 
37.  मंण्डलार्ध व्यूह   
38.  हष्ट व्यूह  
39.  नक्षत्र मण्डल व्यूह
40.  भोग व्यूह
41.  प्रणाल व्यूह
42.  मण्डलार्द्ध व्यूह
43.  मयूर व्यूह
44.  मंगलब्यूह 
45.  असह्मव्यूह  
46.  असंहतव्यूह
47.  विजय व्यूह

प्राचीन भारत के 13 विश्वविद्यालय, जहां पढ़ने आते थे दुनियाभर के छात्र।

प्राचीन भारत के 13 विश्वविद्यालय, जहां पढ़ने आते थे दुनियाभर के छात्र। तुर्की मुगल आक्रमण ने सब जला दिया । बहुत हिन्दू मंदिर लूटे गये। नही तो मेगास्थनीज अलविरुनी इउ एन सांग के ग्रन्थो मे अति समृद्ध भारत का वर्णन है। वैदिक काल से ही भारत में शिक्षा को बहुत महत्व दिया गया है। इसलिए उस काल से ही गुरुकुल और आश्रमों के रूप में शिक्षा केंद्र खोले जाने लगे थे। वैदिक काल के बाद जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया। भारत की शिक्षा पद्धति भी और ज्यादा पल्लवित होती गई। गुरुकुल और आश्रमों से शुरू हुआ शिक्षा का सफर उन्नति करते हुए विश्वविद्यालयों में तब्दील होता गया। पूरे भारत में प्राचीन काल में 13 बड़े विश्वविद्यालयों या शिक्षण केंद्रों की स्थापना हुई। 8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था।गणित, ज्योतिष, भूगोल, चिकित्सा विज्ञान(आयुर्वेद ),रसायन, व्याकरण और साहित्य के साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा देने में भारतीय विश्वविद्यालयों का कोई सानी नहीं था। हालांकि आजकल अधिकतर लोग सिर्फ दो ही प्राचीन विश्वविद्यालयों के बारे में जानते हैं पहला नालंदा और दूसरी तक्षशिला। ये दोनों ही विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध थे। इसलिए आज भी सामान्यत: लोग इन्हीं के बारे में जानते हैं, लेकिन इनके अलावा भी ग्यारह ऐसे विश्वविद्यालय थे जो उस समय शिक्षा के मंदिर थे। आइए आज जानते हैं प्राचीन विश्वविद्यालयों और उनसे जुड़ी कुछ खास बातों को..

1. नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda university)
यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार के पटना शहर से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर में स्थित था। इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज करा देते हैं। सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी मिलती है। यहां 10,000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2,000 शिक्षक थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम 450-470 को प्राप्त है। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवद्र्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
इस विश्वविद्यालय की नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी। सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था। जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक आदि रखने के लिए खास जगह बनी हुई है। हर मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष और अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे व झीलें भी थी। नालंदा में सैकड़ों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था। जिसमें लाखों पुस्तकें थी।

2. तक्षशिला विश्वविद्यालय 
ये सब से प्राचीन विश्वविद्यालय है। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य यहा के अध्यक्ष रहे। तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 2700 साल पहले की गई थी। इस विश्विद्यालय में लगभग 10500 विद्यार्थी पढ़ाई करते थे। इनमें से कई विद्यार्थी अलग-अलग देशों से ताल्लुुक रखते थे। वहां का अनुशासन बहुत कठोर था। राजाओं के लड़के भी यदि कोई गलती करते तो पीटे जा सकते थे। तक्षशिला राजनीति और शस्त्रविद्या की शिक्षा का विश्वस्तरीय केंद्र थी। वहां के एक शस्त्रविद्यालय में विभिन्न राज्यों के 103 राजकुमार पढ़ते थे।

आयुर्वेद और विधिशास्त्र के इसमे विशेष विद्यालय थे। कोसलराज प्रसेनजित, मल्ल सरदार बंधुल, लिच्छवि महालि, शल्यक जीवक और लुटेरे अंगुलिमाल के अलावा चाणक्य और पाणिनि जैसे लोग इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे। इसमें अलग-अलग छोटे-छोटे गुरुकुल होते थे। इन गुरुकुलों में व्यक्तिगत रूप से विभिन्न विषयों के आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे।

3. विक्रमशीला विश्वविद्यालय (Vikramshila university)
विक्रमशीला विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्म पाल ने की थी। 8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के अंंत तक यह विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शिक्षा केंद्रों में से एक था। भारत के वर्तमान नक्शे के अनुसार यह विश्वविद्यालय बिहार के भागलपुर शहर के आसपास रहा होगा।
कहा जाता है कि यह उस समय नालंदा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी था। यहां 1000 विद्यार्थीयों पर लगभग 100 शिक्षक थे। यह विश्वविद्यालय तंत्र शास्त्र की पढ़ाई के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता था। इस विषय का सबसे मशहूर विद्यार्थी अतीसा दीपनकरा था, जो की बाद में तिब्बत जाकर बौद्ध हो गया।

4. वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi university)
वल्लभी विश्वविद्यालय सौराष्ट्र (गुजरात) में स्थित था। छटी शताब्दी से लेकर 12 वी शताब्दी तक लगभग 600 साल इसकी प्रसिद्धि चरम पर थी। चायनीज यात्री ईत- सिंग ने लिखा है कि यह विश्वविद्यालय 7 वी शताब्दी में गुनामति और स्थिरमति नाम की विद्याओं का सबसे मुख्य केंद्र था। यह विश्वविद्यालय धर्म निरपेक्ष विषयों की शिक्षा के लिए भी जाना जाता था। यही कारण था कि इस शिक्षा केंद्र पर पढ़ने के लिए पूरी दुनिया से विद्यार्थी आते थे।
5. उदांत पुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri university)
उदांतपुरी विश्वविद्यालय मगध यानी वर्तमान बिहार में स्थापित किया गया था। इसकी स्थापना पाल वंश के राजाओं ने की थी। आठवी शताब्दी के अंत से 12 वी शताब्दी तक लगभग 400 सालों तक इसका विकास चरम पर था। इस विश्वविद्यालय में लगभग 12000 विद्यार्थी थे।

6. सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura mahavihara)
सोमपुरा विश्वविद्यालय की स्थापना भी पाल वंश के राजाओं ने की थी। इसे सोमपुरा महाविहार के नाम से पुकारा जाता था। आठवीं शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच 400 साल तक यह विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध था। यह भव्य विश्वविद्यालय लगभग 27 एकड़ में फैला था। उस समय पूरे विश्व में बौद्ध धर्म की शिक्षा देने वाला सबसे अच्छा शिक्षा केंद्र था।
7. पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri university)
पुष्पगिरी विश्वविद्यालय वर्तमान भारत के उड़ीसा में स्थित था। इसकी स्थापना तीसरी शताब्दी में कलिंग राजाओं ने की थी। अगले 800 साल तक यानी 11 वी शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय का विकास अपने चरम पर था। इस विश्वविद्यालय का परिसर तीन पहाड़ों ललित गिरी, रत्न गिरी और उदयगिरी पर फैला हुआ था।
नालंदा, तशक्षिला और विक्रमशीला के बाद ये विश्वविद्यालय शिक्षा का सबसे प्रमुख केंद्र था। चायनीज यात्री एक्ज्युन जेंग ने इसे बौद्ध शिक्षा का सबसे प्राचीन केंद्र माना। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस विश्ववविद्यालय की स्थापना राजा अशोक ने करवाई थी।

अन्य विश्वविद्यालय (Other Universities)
प्राचीन भारत में इन विश्वविद्यालयों के अलावा जितने भी अन्य विश्वविद्यालय थे। उनकी शिक्षा प्रणाली भी इन्हीं विश्वविद्यालयों से प्रभावित थी। इतिहास में मिले वर्णन के अनुसार शिक्षा और शिक्षा केंद्रों की स्थापना को सबसे ज्यादा बढ़ावा पाल वंश के शासको ने दिया।

8. जगददला, पश्चिम बंगाल में (पाल राजाओं के समय से भारत में अरबों के आने तक
9. नागार्जुनकोंडा, आंध्र प्रदेश में।
10. वाराणसी उत्तर प्रदेश में (आठवीं सदी से आधुनिक काल तक)
11. कांचीपुरम, तमिलनाडु में
12. मणिखेत, कर्नाटक
13. शारदा पीठ, कश्मीर मे।

Saturday, April 9, 2022

कन्या पूजन की क्या है विधि? आयु के हिसाब से करें कन्या पूजन।

नवरात्रि के दौरान कन्या पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। देवी भागवत पुराण में लिखा है कि कन्या पूजन के बिना नवरात्रि का पूजन पूर्ण नहीं होता है। कन्या पूजन के दौरान नौ कन्याओं और एक छोटे बालक को भोज कराने का चलन है। इन कन्याओं की आयु दो साल से दस साल के बीच होनी चाहिए। इन नौ कन्याओं को नौ देवियों का स्वरूप माना जाता है। वहीं, बालक को लांगुर का स्वरुप माना जाता है। मान्यता है कि कन्या भोज और पूजन से माता रानी अत्यंत प्रसन्न होती हैं और अपने भक्तों के तमाम कष्टों को दूर करती हैं। शास्त्रों में उम्र के हिसाब से कन्या भोज कराने का महत्व बताया गया है। आइए जानें इसके बारे में...

उम्र के हिसाब से कन्या पूजन से जुड़ी मान्यताएं इस प्रकार हैं:- कहा जाता है कि दो साल की कन्या का पूजन करने से दरिद्रता दूर होती है। तीन साल की कन्या के पूजन से घर में सुख समृद्धि आती है और साथ ही धन-धान्य की कमी नहीं रहती। चार साल की कन्या का पूजन करने से घर की सारी समस्याओं का अंत और परिवार के सदस्यों का कल्याण होता है। पांच साल की कन्या का पूजन करने से व्यक्ति का रोग और व्याधि, दोनों दूर होते हैं। छ: साल की कन्या कालका देवी का रुप मानी जाती है। इसकी पूजा करने से विद्या और विजय की प्राप्ति होती है। सात साल की कन्या का पूजन करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। आठ और नौ साल की कन्या साक्षात दुर्गा का रूप कहलाती है। इनका पूजन करने से असाध्य काम भी पूरे हो सकते हैं। दस साल की कन्या का पूजन करने से भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।

कन्या पूजन विधि।
वैसे तो कन्या पूजन, नवरात्रि के दौरान कभी भी किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए अष्टमी और नवमी तिथि को श्रेष्ठ माना गया है। कन्या पूजन करने के लिए कन्याओं को आमंत्रित करना चाहिए। घर आने पर फूलों से उनका स्वागत करें और पैरों को, थाल में पानी डालकर धुलवाएं। इसके बाद उन्हें सम्मानपूर्वक भोजन और प्रसाद खिलाएं। कन्या भोज से पहले मां दुर्गा को भोग लगाएं। कन्याओं को तिलक लगाएं, कलावा बांधें और पैर छू कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके बाद दक्षिणा व सामर्थ्य अनुसार उपहार देकर सम्मानपूर्वक विदा करें।

Friday, April 8, 2022

क्या आप जानते है गायत्री मंत्र में क्या खास शक्ति है? आइए जानते हैं।

इस चित्र से आपको यह तो समझ आ गया होगा की गायत्री मंत्र से शरीर के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर कम्पन व असर होता है।

चलो सबसे पहले हम समझते है कोई मंत्र काम केसे करता है, वास्तव में मंत्र के सही और सटीक उच्चारण से वह कार्य करता है, जब हम कोई मंत्र बोलते है वह ध्वनि हमारे शरीर के अलग अलग भाग से उत्पन्न होती है व अलग अलग भाग को प्रभावित करती है। उदाहरण के तौर पर जब आप प्रणव यानी कि ॐ का उच्चारण करते है तो वह भी अलग अलग भाग से उत्पन्न हुआ प्रतीत होगा, तो वैसे ही इस चित्र के अनुसार गायत्री मंत्र भी शरीर के अलग अलग बिंदुओ को प्रभावित करता है।

दूसरी बात गायत्री मंत्र क्या है, यह जानना जरूरी है, यह वास्तव में सविता देवता का मंत्र है, मतलब इसकी ऊर्जा का संबंध सविता देवता से है, सविता देवता को ही सूर्य समझिए, सूर्य की शक्ति को सविता कहा गया है। तो जो कहते है की गायत्री मंत्र से कोई असर नहीं हुआ या ना कुछ खास महसूस हुआ तो उन्हें ये जानना बहुत जरूरी है कि इसका जप कब और केसे करे।

गायत्री मंत्र का जप दिन में होने वाली तीनों में से किसी भी संध्या के समय किया जा सकता है।

Thursday, March 31, 2022

क्या आप जानते हैं नर्मदा नदी के हर पत्थर में भगवान शिव क्यों वास करते है।

प्राचीनकाल में नर्मदा नदी ने बहुत वर्षों तक तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा। नर्मदाजी ने कहा‌ ब्रह्मा जी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे गंगाजी के समान कर दीजिए।


ब्रह्माजी ने मुस्कराते हुए कहा ’यदि कोई दूसरा देवता भगवान शिव की बराबरी कर ले, कोई दूसरा पुरुष भगवान विष्णु के समान हो जाए, कोई दूसरी नारी पार्वतीजी की समानता कर ले और कोई दूसरी नगरी काशीपुरी की बराबरी कर सके तो कोई दूसरी नदी भी गंगा के समान हो सकती है।'

ब्रह्माजी की बात सुनकर नर्मदा उनके वरदान का त्याग करके काशी चली गयीं और वहां पिलपिलातीर्थ में शिवलिंग की स्थापना करके तप करने लगीं। भगवान शंकर उनपर बहुत प्रसन्न हुए और वर मांगने के लिए कहा। नर्मदा ने कहा ’भगवन्! तुच्छ वर मांगने से क्या लाभ? बस आपके चरणकमलों में मेरी भक्ति बनी रहे।'

नर्मदा की बात सुनकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हो गए और बोले - ’नर्मदे! तुम्हारे तट पर जितने भी प्रस्तरखण्ड (पत्थर) हैं, वे सब मेरे वर से शिवलिंगरूप हो जाएंगे। गंगा में स्नान करने पर शीघ्र ही पाप का नाश होता है, यमुना सात दिन के स्नान से और सरस्वती तीन दिन के स्नान से सब पापों का नाश करती हैं परन्तु तुम दर्शनमात्र से सम्पूर्ण पापों का निवारण करने वाली होगी। तुमने जो नर्मदेश्वर शिवलिंग की स्थापना की है, वह पुण्य और मोक्ष देने वाला होगा।’ 

भगवान शंकर उसी लिंग में लीन हो गए। इतनी पवित्रता पाकर नर्मदा भी प्रसन्न हो गयीं। इसलिए कहा जाता है ‘नर्मदा का हर कंकर शिव शंकर है।'

                 🔱☘️ !! हर हर महादेव !! 🔱☘️

Tuesday, March 15, 2022

होलिका दहन पर भूलकर भी ना करें ये काम, नहीं तो हो सकती है पैसों की तंगी।

हिंदू धर्म में रंगों की होली खेलने से एक दिन पहले होलिका दहन करने की परंपरा है जो सदियों से चली आ रही है। होली के त्यौहार का हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। अपने अहंकारी भाई के कहने पर होलिका, प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गई, लेकिन भगवान विष्णु की कृपी से प्रह्लाद की जान बच गई और होलिका जल कर भस्म हो गई। 

जिस दिन यह घटना घटी, उस दिन फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि थी। तब से होलिका दहन की परंपरा शुरु हुई और आज तक चली आ रही है। होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, और इस बार होलिका दहन 17 मार्च 2022 की रात को किया जाएगा। होलिका दहन में इस बात का ध्यान रखते हैं कि कहीं उस समय में भद्रा तो नहीं है? भद्रा में होलिका दहन करना वर्जित माना जाता है। होलिका दहन के दिन कुछ ऐसे कार्य होते हैं, जिनको करना मना होता है। उन कार्यों को करना अशुभ माना जाता है। आइए जानते हैं कि होलिका दहन के दिन किन कार्यों को नहीं करना चाहिए।

होलिका दहन के दिन न करें ये काम।
1. होलिका दहन के अवसर पर पूजा करते समय अपने सिर को खुला नहीं रखना चाहिए। इस दौरान सिर पर रुमाल या कोई अन्य कपड़ा रख लेना चाहिए। होलिका दहन के दिन सिर खुला रख कर पूजा करना अशुभ माना जाता है।

2. नवविवाहित जोड़ों को होलिका दहन के दिन जलती हुई आग को नहीं देखना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि होलिका की आग को देखने से वैवाहिक जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

3. होलिका दहन की रात पूर्णिमा होती है, इस दिन लोग तांत्रिक क्रियाएं करते हैं। ऐसे में बाहर पड़ी हुई किसी वस्तु को नहीं छूना चाहिए क्योंकि उसमें नकारात्मक शक्तियां हो सकती हैं, उनसे बचना चाहिए।

4. होलिका दहन के दिन काले रंग के कपड़े पहनने से बचना चाहिए। काले रंग को नकारात्मकता का प्रतीक मानते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के अनुसार, होलिका दहन के दिन नकारात्मकता का प्रभाव ज़्यादा रहता है, इसलिए काले कपड़े पहनने से बचें।

5. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, होलिका दहन वाले दिन भक्त प्रह्लाद को मारने के लिए नकारात्मक शक्तियां एक हो गई थीं। इस रात नकारात्मक शक्तियां प्रभावी हो सकती हैं, इस वजह से तामसिक चीज़ों का सेवन न करें। इनके सेवन से आपके अंदर नकारात्मकता का प्रभाव बढ़ सकता है।

Sunday, March 6, 2022

महाभारत में वर्णित ये पेंतीस नगर आज भी मौजूद हैं जाने क्या बदला है।

भारत देश महाभारतकाल में कई बड़े जनपदों में बंटा हुआ था। हम महाभारत में वर्णित जिन 35 राज्यों और शहरों के बारे में जिक्र करने जा रहे हैं, वे आज भी मौजूद हैं। आप भी जाने।

1. गांधार:- आज के कंधार को कभी गांधार के रूप में जाना जाता था। यह देश पाकिस्तान के रावलपिन्डी से लेकर सुदूर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी वहां के राजा सुबल की पुत्री थीं। गांधारी के भाई शकुनी दुर्योधन के मामा थे।

2. तक्षशिला:- तक्षशिला गांधार देश की राजधानी थी। इसे वर्तमान में रावलपिन्डी कहा जाता है। तक्षशिला को ज्ञान और शिक्षा की नगरी भी कहा गया है।

3. केकय प्रदेश:-  जम्मू-कश्मीर के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में केकय प्रदेश के रूप में है। केकय प्रदेश के राजा जयसेन का विवाह वसुदेव की बहन राधादेवी के साथ हुआ था। उनका पुत्र विन्द जरासंध, दुर्योधन का मित्र था। महाभारत के युद्ध में विन्द ने कौरवों का साथ दिया था।

4. मद्र देश:- केकय प्रदेश से ही सटा हुआ मद्र देश का आशय जम्मू-कश्मीर से ही है। एतरेय ब्राह्मण के मुताबिक, हिमालय के नजदीक होने की वजह से मद्र देश को उत्तर कुरू भी कहा जाता था। महाभारत काल में मद्र देश के राजा शल्य थे, जिनकी बहन माद्री का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था। नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।

5. उज्जनक:- आज के नैनीताल का जिक्र महाभारत में उज्जनक के रूप में किया गया है। गुरु द्रोणचार्य यहां पांडवों और कौरवों की अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते थे। कुन्ती पुत्र भीम ने गुरु द्रोण के आदेश पर यहां एक शिवलिंग की स्थापना की थी। यही वजह है कि इस क्षेत्र को भीमशंकर के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का एक विशाल मंदिर है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह शिवलिंग 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है।

6. शिवि देश:- महाभारत काल में दक्षिण पंजाब को शिवि देश कहा जाता था। महाभारत में महाराज उशीनर का जिक्र है, जिनके पौत्र शैव्य थे। शैव्य की पुत्री देविका का विवाह युधिष्ठिर से हुआ था। शैव्य एक महान धनुर्धारी थे और उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।

7. वाणगंगा:- कुरुक्षेत्र से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वाणगंगा। कहा जाता है कि महाभारत की भीषण लड़ाई में घायल पितामह भीष्म को यहां सर-सैय्या पर लिटाया गया था। कथा के मुताबिक, भीष्ण ने प्यास लगने पर जब पानी की मांग की तो अर्जुन ने अपने वाणों से धरती पर प्रहार किया और गंगा की धारा फूट पड़ी। यही वजह है कि इस स्थान को वाणगंगा कहा जाता है।

8. कुरुक्षेत्र:- हरियाणा के अम्बाला इलाके को कुरुक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां महाभारत की प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी। यही नहीं, आदिकाल में ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ का आयोजन किया था। इस स्थान पर एक ब्रह्म सरोवर या ब्रह्मकुंड भी है। श्रीमद् भागवत में लिखा हुआ है कि महाभारत के युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ इस सरोवर में स्नान किया था।

9. हस्तिनापुर:- महाभारत में उल्लिखित हस्तिनापुर का इलाका मेरठ के आसपास है। यह स्थान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। सही मायने में महाभारत युद्ध की पटकथा यहीं लिखी गई थी। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर को अपने राज्य की राजधानी बनाया।

10. वर्नावत:- यह स्थान भी उत्तर प्रदेश के मेरठ के नजदीक ही माना जाता है। वर्णावत में पांडवों को छल से मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह का निर्माण करवाया था। यह स्थान गंगा नदी के किनारे है। महाभारत की कथा के मुताबिक, इस ऐतिहासिक युद्ध को टालने के लिए पांडवों ने जिन पांच गांवों की मांग रखी थी, उनमें एक वर्णावत भी था। आज भी यहां एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम वर्णावा है।

11. पांचाल प्रदेश:- हिमालय की तराई का इलाका पांचाल प्रदेश के रूप में उल्लिखित है। पांचाल के राजा द्रुपद थे, जिनकी पुत्री द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। द्रौपदी को पांचाली के नाम से भी जाना जाता है।

12. इन्द्रप्रस्थ:- मौजूदा समय में दक्षिण दिल्ली के इस इलाके का वर्णन महाभारत में इन्द्रप्रस्थ के रूप में है। कथा के मुताबिक, इस स्थान पर एक वियावान जंगल था, जिसका नाम खांडव-वन था। पांडवों ने विश्वकर्मा की मदद से यहां अपनी राजधानी बनाई थी। इन्द्रप्रस्थ नामक छोटा सा कस्बा आज भी मौजूद है।

13. वृन्दावन:- यह स्थान मथुरा से करीब 10 किलोमीटर दूर है। वृन्दावन को भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बांके-बिहारी मंदिर प्रसिद्ध है।

14. गोकुल:- यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह स्थान भी मथुरा से करीब 8 किलोमीटर दूर है। कंस से रक्षा के लिए कृष्ण के पिता वसुदेव ने उन्हें अपने मित्र नंदराय के घर गोकुल में छोड़ दिया था। कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम गोकुल में साथ-साथ पले-बढ़े थे।

15. बरसाना:- यह स्थान भी उत्तर प्रदेश में है। यहां की चार पहाड़ियां के बारे में कहा जाता है कि ये ब्रह्मा के चार मुख हैं।

16. मथुरा:- यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह प्रसिद्ध शहर हिन्दू धर्म के लिए अनुयायियों के लिए बेहद प्रसिद्ध है। यहां राजा कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। यहीं पर श्रीकृष्ण ने बाद में कंस की हत्या की थी। बाद में कृष्ण के पौत्र वृजनाथ को मथुरा की राजगद्दी दी गई।

17. अंग देश:- वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के इलाके का उल्लेख महाभारत में अंगदेश के रूप में है। दुर्योधन ने कर्ण को इस देश का राजा घोषित किया था। मान्यताओं के मुताबिक, जरासंध ने अंग देश दुर्योधन को उपहारस्वरूप भेंट किया था। इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है।

18. कौशाम्बी:- कौशाम्बी वत्स देश की राजधानी थी। वर्तमान में इलाहाबाद के नजदीक इस नगर के लोगों ने महाभारत के युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। बाद में कुरुवंशियों ने कौशाम्बी पर अपना अधिकार कर लिया। परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।

19. काशी:- महाभारत काल में काशी को शिक्षा का गढ़ माना जाता था। महाभारत की कथा के मुताबिक, पितामह भीष्म काशी नरेश की पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को जीत कर ले गए थे ताकि उनका विवाह विचित्रवीर्य से कर सकें। अम्बा के प्रेम संबंध राजा शल्य के साथ थे, इसलिए उसने विचित्रवीर्य से विवाह से इन्कार कर दिया। अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। विचित्रवीर्य के अम्बा और अम्बालिका से दो पुत्र धृतराष्ट्र और पान्डु हुए। बाद में धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए और पान्डु के पांडव।

20. एकचक्रनगरी:- वर्तमान कालखंड में बिहार का आरा जिला महाभारत काल में एकचक्रनगरी के रूप में जाना जाता था। लाक्षागृह की साजिश से बचने के बाद पांडव काफी समय तक एकचक्रनगरी में रहे थे। इस स्थान पर भीम ने बकासुर नामक एक राक्षक का अन्त किया था। महाभारत युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया था, उस समय बकासुर के पुत्र भीषक ने उनका घोड़ा पकड कर रख लिया था। बाद में वह अर्जुन के हाथों मारा गया।

21. मगध:- दक्षिण बिहार में मौजूद मगध जरासंध की राजधानी थी। जरासंध की दो पुत्रियां अस्ती और प्राप्ति का विवाह कंस से हुआ था। जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब वह अनायास ही जरासंध के दुश्मन बन बैठे। जरासंध ने मथुरा पर कई बार हमला किया। बाद में एक मल्लयुद्ध के दौरान भीम ने जरासंध का अंत किया। महाभारत के युद्ध में मगध की जनता ने पांडवों का समर्थन किया था।

22. पुन्डरू:- देश मौजूदा समय में बिहार के इस स्थान पर राजा पोन्ड्रक का राज था। पोन्ड्रक जरासंध का मित्र था और उसे लगता था कि वह कृष्ण है। उसने न केवल कृष्ण का वेश धारण किया था, बल्कि उसे वासुदेव और पुरुषोत्तम कहलवाना पसन्द था। द्रौपदी के स्वयंवर में वह भी मौजूद था। कृष्ण से उसकी दुश्मनी जगजाहिर थी। द्वारका पर एक हमले के दौरान वह भगवान श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया।

23. प्रागज्योतिषपुर:- गुवाहाटी का उल्लेख महाभारत में प्रागज्योतिषपुर के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यहां नरकासुर का राज था, जिसने 16 हजार लड़कियों को बन्दी बना रखा था। बाद में श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और सभी 16 हजार लड़कियों को वहां से छुड़ाकर द्वारका लाए। उन्होंने सभी से विवाह किया। मान्यता है कि यहां के प्रसिद्ध कामख्या देवी मंदिर को नरकासुर ने बनवाया था।

24. कामख्या:- गुवाहाटी से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कामख्या एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। भागवत पुराण के मुताबिक, जब भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर बदहवाश इधर-उधर भाग रहे थे, तभी भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के कई टुकड़े कर दिए। इसका आशय यह था कि भगवान शिव को सती के मृत शरीर के भार से मुक्ति मिल जाए। सती के अंगों के 51 टुकड़े जगह-जगह गिरे और बाद में ये स्थान शक्तिपीठ बने। कामख्या भी उन्हीं शक्तिपीठों में से एक है।

25. मणिपुर:- नगालैन्ड, असम, मिजोरम और वर्मा से घिरा हुआ मणिपुर महाभारत काल से भी पुराना है। मणिपुर के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। इस विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम था बभ्रुवाहन। राजा चित्रवाहन की मृत्यु के बाद बभ्रुवाहन को यहां का राजपाट दिया गया। बभ्रुवाहन ने युधिष्ठिर द्वारा आयोजित किए गए राजसूय यज्ञ में भाग लिया था।

26. सिन्धु देश:- सिन्धु देश का तात्पर्य प्राचीन सिन्धु सभ्यता से है। यह स्थान न केवल अपनी कला और साहित्य के लिए विख्यात था, बल्कि वाणिज्य और व्यापार में भी यह अग्रणी था। यहां के राजा जयद्रथ का विवाह धृतराष्ट्र की पुत्री दुःश्शाला के साथ हुआ था। महाभारत के युद्ध में जयद्रथ ने कौरवों का साथ दिया था और चक्रव्युह के दौरान अभिमन्यू की मौत में उसकी बड़ी भूमिका थी।

27. मत्स्य देश:- राजस्थान के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में मत्स्य देश के रूप में है। इसकी राजधानी थी विराटनगरी। अज्ञातवास के दौरान पांडव वेश बदल कर राजा विराट के सेवक बन कर रहे थे। यहां राजा विराट के सेनापति और साले कीचक ने द्रौपदी पर बुरी नजर डाली थी। बाद में भीम ने उसकी हत्या कर दी। अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू का विवाह राजा विराट की पुत्री उत्तरा के साथ हुआ था।

28. मुचकुन्द तीर्थ:- यह स्थान धौलपुर, राजस्थान में है। मथुरा पर जीत हासिल करने के बाद कालयावन ने भगवान श्रीकृष्ण का पीछा किया तो उन्होंने खुद को एक गुफा में छुपा लिया। उस गुफा में मुचकुन्द सो रहे थे, उन पर कृष्ण ने अपना पीताम्बर डाल दिया। कृष्ण का पीछा करते हुए कालयावन भी उसी गुफा में आ पहुंचा। मुचकुन्द को कृष्ण समझकर उसने उन्हें जगा दिया। जैसे ही मुचकुन्द ने आंख खोला तो कालयावन जलकर भस्म हो गया। मान्यताओं के मुताबिक, महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब पांडव हिमालय की तरफ चले गए और कृष्ण गोलोक निवासी हो गए, तब कलयुग ने पहली बार यहां अपने पग रखे थे।

29. पाटन:- महाभारत की कथा के मुताबिक, गुजरात का पाटन द्वापर युग में एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र था। पाटन के नजदीक ही भीम ने हिडिम्ब नामक राक्षस का संहार किया था और उसकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया। हिडिम्बा ने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था घटोत्कच्छ। घटोत्कच्छ और उनके पुत्र बर्बरीक की कहानी महाभारत में विस्तार से दी गई है।

30. द्वारका- माना जाता है कि गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित यह स्थान कालान्तर में समुन्दर में समा गया। कथाओं के मुताबिक, जरासंध के बार-बार के हमलों से यदुवंशियों को बचाने के लिए कृष्ण मथुरा से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर द्वारका ले गए।

31. प्रभाष:- गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि यह स्थान भगवान श्रीकृष्ण का निवास-स्थान रहा है। महाभारत कथा के मुताबिक, यहां भगवान श्रीकृष्ण पैर के अंगूठे में तीर लगने की वजह से घायल हो गए थे। उनके गोलोकवासी होने के बाद द्वारका नगरी समुन्दर में डूब गई। विशेषज्ञ मानते हैं कि समुन्दर के सतह पर द्वारका नगरी के अवेशष मिले हैं।

32. अवन्तिका:- मध्यप्रदेश के उज्जैन का उल्लेख महाभारत में अवन्तिका के रूप में मिलता है। यहां ऋषि सांदपनी का आश्रम था। अवन्तिका को देश के सात प्रमुख पवित्र नगरों में एक माना जाता है। यहां भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में एक महाकाल लिंग स्थापित है।

33. चेदी:- वर्तमान में ग्वालियर क्षेत्र को महाभारत काल में चेदी देश के रूप में जाना जाता था। गंगा व नर्मदा के मध्य स्थित चेदी महाभारत काल के संपन्न नगरों में एक था। इस राज्य पर श्रीकृष्ण के फुफेरे भाई शिशुपाल का राज था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचा लिया। 

इस घटना की वजह से शिशुपाल और श्रीकृष्ण के बीच संबंध खराब हो गए। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय चेदी नरेश शिशुपाल को भी आमंत्रित किया गया था। शिशुपाल ने यहां कृष्ण को बुरा-भला कहा, तो कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया। महाभरत की कथा के मुताबिक, दुश्मनी की बात सामने आने पर श्रीकृष्ण की बुआ उनसे शिशुपाल को अभयदान देने की गुजारिश की थी। इस पर श्रीकृष्ण ने बुआ से कहा था कि वह शिशुपाल के 100 अपराधों को माफ कर दें, लेकिन 101वीं गलती पर माफ नहीं करेंगे।

34. सोणितपुर:- मध्यप्रदेश के इटारसी को महाभारत काल में सोणितपुर के नाम से जाना जाता था। सोणितपुर पर वाणासुर का राज था। वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ सम्पन्न हुआ था। यह स्थान हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ है।

35. विदर्भ:-  महाभारतकाल में विदर्भ क्षेत्र पर जरासंध के मित्र राजा भीष्मक का शासन था। रुक्मिणी भीष्मक की पुत्री थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचाया था। यही वजह थी कि भीष्मक उन्हें अपना शत्रु मानने लगे। जब पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया था, तब भीष्मक ने उनका घोड़ा रोक लिया था। सहदेव ने भीष्मक को युद्ध में हरा दिया।

Monday, February 28, 2022

महाशिवरात्रि पर महामृत्युंजय मंत्र का करें जाप, जीवन से दूर होंगे कष्ट।

महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव और देवी पार्वती के मिलन उत्सव को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। इस दिन भगवान शिव की पूरे विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना की जाती है और साथ ही व्रत उपवास करने का विधान भी है। 

इस बार महाशिवरात्रि का त्यौहार 1 मार्च 2022  (मंगलवार) को मनाया जाएगा। धार्मिक मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन व्रत रखने से जातकों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस दिन भगवान शंकर को बेल पत्र, धतूरा, बेर अर्पित किए जाते हैं। इस दिन कई प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान, जैसे रूद्राभिषेक और महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया जाता है। माना जाता है कि महामृत्युंजय मंत्र के जाप से कई कष्टों का निवारण होता है।

ओम् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

इस मंत्र का उच्चारण करने से व्यक्ति के जीवन के सारे दुख, दरिद्रता दूर हो जाते हैं। कहते हैं कि इस मंत्र के जाप से मृत्यु का संकट तक टल जाता है। दैहिक व्याधियों में यह मंत्र प्रभावी होने के साथ-साथ, अन्य भौतिक और दैविक संताप में भी अत्यंत असरदार है। कहते हैं कि शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या का नकारात्मक प्रभाव, महामृत्यंजय मंत्र के जाप से दूर हो जाता है। विशेष अनुष्ठान में इसका जाप सवा लाख बार किया जाता है। उसका दसांश हवन कराया जाता है। इसमें 11 साधकों का सहयोग लिया जाता है।

अकेले भी इसे पूरा किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए नित्य प्रति एक निश्चित संख्या में जप करना अनिवार्य होता है। इस जप और हवन से इच्छित परिणाम की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि सामान्य नित्य पूजा में इस मंत्र को शामिल करने से आपदाएं, व्यक्ति से दूर रहती हैं। ऐसा कहा जाता है कि महामृत्युंजय मंत्र का जाप स्वास्थ्य लाभ के लिए लाभदायक होता है। साथ ही यह भी मान्यता है कि सुबह पूजा के समय अगर इस मंत्र का जाप किया जाए, तो कई प्रकार के कष्टों का निवारण होता है। शिव जी की आराधना महामृत्युंजय मंत्र के बिना अपूर्ण है। महाशिवरात्रि पर महामृत्युंजय मंत्र के परायण का विशेष लाभ प्राप्त होता है। आइए जानते हैं महामृत्युंजय मंत्र का पुरश्चरण कैसे किया जाता है-

महामृत्यंजय मंत्र का पुरश्चरण पांच प्रकार का होता है जाप हवन तर्पण मार्जन ब्राह्मण भोज।
पुरश्चरण में जप संख्या, निर्धारित मंत्र के अक्षरों की संख्या पर निर्भर करती है। इसमें “ॐ” और “नम:” को नहीं गिना जाता है। जप संख्या निश्चित होने के उपरान्त, जप का दशांश हवन,  हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोज कराने से ही पुरश्चरण पूर्ण होता है।
-परायण हेतु निम्न महामृत्युंजय मत्र का यथाशक्ति जाप करें

“ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धानात्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात् भूर्भुव: स्व: ॐ स: जूं हौं ॐ।”

Monday, January 31, 2022

‘देवों के देव’ भगवान महादेव से सीखें जीवन में आगे बढ़ने का मंत्र।

महादेव का एक रूप ताडंव करते नटराज का है, तो दूसरा रूप महान महायोगी का है। ये दोनों ही रूप रहस्यों से भरे हैं, लेकिन शिव जी को भोलेनाथ भी कहा जाता है। जहां एक साथ इतने सारे रंग हों, तो फिर क्यों न अपनी ज़िन्दगी में इन रंगों से प्रेरणा लें? भगवान शिव के जीवन से जुड़े कुछ सबक इस प्रकार हैं।

1. बुराई को ख़त्म करना:
ब्रह्मा जी को उत्पत्ति के लिए, भगवान विष्णु को रचना के लिए और महादेव को विनाश के लिए जाना जाता है। भगवान शिव का यह रूप आपको डराने वाला लग सकता है लेकिन किसी बुराई का ख़त्म होना बेहद ज़रूरी होता है, और भगवान शिव इसी के लिए जाने जाते हैं।

2. शांत रहकर स्वयं पर नियंत्रण रखना:
भगवान शिव से बड़ा कोई योगी नहीं हुआ। किसी परिस्थिति से स्वयं को दूर रखते हुए उस पर पकड़ रखना आसान नहीं होता है। महादेव एक बार ध्यान में बैठ जाएं तो दुनिया इधर से उधर हो सकती है लेकिन उनका ध्यान कोई भंग नहीं कर सकता। शिव जी का यह ध्यान हमें जीवन की चीज़ों पर नियंत्रण रखना सिखाता है।

3. नकारात्मक चीज़ों को भी सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना:
समुद्र मंथन से जब विष बाहर आया तो सभी ने क़दम पीछे खींच लिए थे, क्योंकि विष कोई नहीं पी सकता था। ऐसे में महादेव ने स्वयं विष (हलाहल) पिया और उन्हें नीलकंठ नाम दिया गया। इस घटना से बहुत बड़ा सबक मिलता है कि हम भी जीवन में आने वाली नकारात्मक (निगेटिव) चीज़ों को अपने अंदर रख लें, लेकिन उसका असर न ख़ुद पर हावी होने दें और न ही दूसरों पर।

4. जीवनसाथी के प्रति सम्मान:
शिव जी का यह रूप जगज़ाहिर है। हिंदू मान्यताओं के हिसाब से निपुण जीवनसाथी (पेरफ़ेक्ट पार्टनर) महादेव को ही माना जाता है। अगर माता पार्वती ने उन्हें मनाने के लिए सालों की तपस्या की है तो दूसरी ओर शिव जी ने उन्हें अर्धांगिनी बनाया है। तभी तो 33 करोड़ देवताओं में शिव जी को ही अर्धनारीश्वर कहा जाता है।

5. हर समय समान भाव रखना:
महादेव का संपूर्ण रूप देखकर यह संदेश मिलता है कि हम जिन चीज़ों को अपने आस-पास देख भी नहीं सकते, उन चीज़ों को महादेव ने बड़ी आसानी से अपनाया है। तभी तो उनकी शादी पर भूतों की मंडली पहुंची थी। शरीर में भभूत लगाए भोलेनाथ के गले में सांप लिपटा होता है। बुराई किसी में नहीं होती, बस एक बार आपको उसे अपनाना होता है।

6. तीसरी आंख का खुलना:
शिव जी को त्रयंबक भी कहा गया है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का मतलब है कि बोध या अनुभव का एक दूसरा आयाम खुल गया है। दो आंखें सिर्फ़ भौतिक चीज़ों को देख सकती हैं। लेकिन भीतर की ओर देखने के बोध से आप जीवन को बिल्कुल अलग ढंग से देख सकते हैं। इसलिए बनी बनाई चीजों पर चलने से पहले स्वयं उनके बारे में सोचें और समझें।

7. अपनी राह चुनना:
शिव जी की जीवन शैली हो या उनका कोई अवतार, वे हर रूप में बिल्कुल अलग हैं। फिर वो रूप तांडव करते हुए नटराज का हो, विष पीने वाले नीलकंठ, अर्धनारीश्वर, या फिर सबसे पहले प्रसन्न होने वाले भोलेनाथ का, वे हर रूप में जीवन को सही राह देते हैं।

मैं तो इंसानियत से मजबूर था तुम्हे बीच मे नही डुबोया" मगर तुमने मुझे क्यों काट लिया!

नदी में बाढ़ आती है छोटे से टापू में पानी भर जाता है वहां रहने वाला सीधा साधा1चूहा कछुवे  से कहता है मित्र  "क्या तुम मुझे नदी पार करा ...