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Thursday, November 19, 2020

माता सीता और द्रोपदी ने क्यों किया था छठ पूजा! जानें इस महापर्व का इतिहास।

आज से देश में महापर्व छठ की शुरूआत हो गई है। छठ पर्व पर सूर्य देव की पूजा का बहुत महत्व होता है, सूर्य को इस दिन शाम को और दूसरे दिन सुबह अर्घ्य दिया जाता है। छठ का पहला दिन नहाय खाए से शुरू होता है। उत्तर प्रदेश और खासकर बिहार में मनाया जाने वाला ये पर्व अपने आप में काफी खास है। इसे पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। छठ पूजा चार दिन तक चलती है। सूर्य देव की आराधना और संतान के सुखी जीवन की कामना के लिए समर्पित छठ पूजा हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को होती है। इस वर्ष छठ पूजा 20 नवंबर यानी शुक्रवार को है।

राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी।
छठ पर्व कैसे शुरू हुआ इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर है। कहते हैं राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वह पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वह सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा।

सीता जी ने 6 दिनों तक सूर्यदेव की उपासना की।
राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी और तभी से छठ पूजा होती है। इस कथा के अलावा एक कथा राम-सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम और सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला किया था। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिड़क कर उन्हें पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। उस समय सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर 6 दिनों तक भगवान सूर्यदेव की पूजा की थी।

द्रौपदी ने भी छठ व्रत रखा था।
एक और मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वह रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई है।

Tuesday, November 17, 2020

अगर छठ पूजा में करते हैं ये काम, तो प्रसन्न होती हैं छठ मईया।

हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को छठ पर्व मनाया जाता है। जो इस बार 20 नवंबर यानि कि शुक्रवार के दिन है। इस दिन छठ पूजा के साथ साथ डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर अगले दिन सूर्योदय पर भी अर्घ्य देकर व्रत का पारण किया जाता है। लेकिन छठ पर्व की शुरुआत षष्ठी तिथि से दो दिन पहले चतुर्थी से ही हो जाती है। तिथि के अनुसार, छठ पूजा 4 दिनों की होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। व्रत के दौरान वह पानी भी ग्रहण नहीं करते हैं।

यह व्रत संतान प्राप्ति के साथ-साथ परिवार की सुख-समृद्धि के लिए भी रखा जाता है। छठ पूजा के दौरान बहुत ही विधि-विधान के साथ पूजा की जाती है। इस दिन विधि-विधान से पूजा करने के साथ-साथ कई नियमों का पालन करना भी बहुत जरूरी होता है। यह व्रत जितना कठिन होता है उतने ही कठिन इसके नियम होते हैं। जानें छठ पूजा के दौरान किन 10 नियमों का पालन करना बहुत जरूरी होता है।

छठ पूजा के 10 बड़े नियम।
👉मान्यताओं के अनुसार प्याज और लहसुन का सेवन करना इन 4 दिनों में वर्जित माना जाता है।

👉छठ पूजा में सफाई का बहुत अधिक ध्यान रखना पड़ता है। इसलिए बिना साफ-सफाई के पूजा की कोई भी चीज नहीं छूनी चाहिए।

👉जो महिलाएं यह व्रत करती हैं वह इन दिनों में पलंग या चारपाई पर नहीं सोती बल्कि जमीन पर चादर बिछाकर सोती हैं।

👉सूर्य भगवान को अर्ध्य देना बहुत ही जरूरी माना जाता है। इसलिए कभी भी पूजा के लिए चांदी, स्टील, प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

👉प्रसाद तैयार करते समय खुद कुछ नहीं खाना चाहिए।

👉जिस जगह आप प्रसाद बना रहे हैं, वहां पर पहले खाना न बनता हो।

👉पूजा के समय हमेशा साफ-सुथरे और धुले हुए कपड़े ही पहनें।

👉अगर आपने व्रत रखा है तो बिना सूर्य को अर्घ्य दिए जल या फिर किसी और चीज का सेवन न करें।

👉छठ व्रत के दौरान शराब, अल्कोहल और मांसाहारी खाने से दूरी बनाकर रखें।

👉पूजा के दिनों में किसी को भी फलों का सेवन नहीं करना चाहिए। पूजा समाप्त होने के बाद फलों का सेवन कर सकते हैं।

Monday, November 16, 2020

भाई दूज पर टीके का शुभ मुहूर्त का समय, पूजा विधि और व्रत कथा जानिए।

उल्लास के पर्व दीपावली के तीसरे दिन भाई-बहन के प्यार के प्रतीक भाईदूज मनाया जाता रहा है। हर साल कि तरह इस साल भी भाईदूज 16 नवंबर को पड़ने वाले भाई दूज के साथ ही दीपोत्सव का समापन हो रहा है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को अपने घर भोजन के लिए बुलाती है और उन्हें प्यार से खाना खिलाती हैं।

भाईदूज का त्योहार कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। साल 2020 में भाईदूज के पर्व का समय 16 नवंबर की सुबह 7 बजकर 6 मिनट से 17 नवंबर की सुबह 3 बजकर 56 मिनट तक पड़ रहा है। इस साल टीके का शुभ मुर्हूत दिन 12:56 से 03:06 तक है। इस साल भाईदूज 16 नवंबर को मनाया जाएगा।

16 को भगवान चित्रगुप्त और कलाम-दवात की पूजा: इसी दिन पूरे जगत का लेखाजोखा रखने वाले भगवान चित्रगुप्त की जयंती भी मनाई जाती है। चित्रगुप्त पूजा के दौरान कलम दवात की पूजा होगी।

कैसे मनाया जाता है भाईदूज।
भाईदूज का त्योहार विक्रमी संवत नववर्ष के दूसरे दिन भी मनाया जाता है। भाईदूज को अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे- भाईजी, भाई टीका. यह त्योहार करीब रक्षाबंधन की तरह ही मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों का टीका करती हैं और उन्हें प्यार से भोजन कराती हैं। बहनें भाइयों की सुख-समृद्धि और खुशहाली की कामना करती हैं और भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं।

क्यों मनाते हैं भाईदूज का त्योहार।
भाईदूज का त्योहार क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। द्वापर युग में जब भगवान श्री कृष्ण नरकासुर नाम के राक्षस का वध करने के बाद अपनी बहन सुभद्रा के पास आए, तो सुभद्रा ने श्री कृष्ण का मिठाई और फूलों के साथ स्वागत किया। इस दिन सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण का तिलक किया था। कहा जाता है कि तब से ही हर साल इस तिथि को भाईदूज के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई। देश के अलग-अलग हिस्सों में यह त्योहार अलग-अलग रूपों में भी मनाया जाता है, जैसे दक्षिण भारत में लोग इस दिन को यम द्वितीया के रूप में मनाते हैं।

एक और लोकप्रिय कथा के अनुसार, कार्तिक शुक्ल के दिन मृत्यु के देवता यमराज अपने दिव्य स्वरूप में अपनी बहन यमुना जी से मिलने के लिए गए थे, तब यमुना ने यमराज का मंगल तिलक कर और प्यार से भोजन कराके आशीर्वाद दिया था। इसीलिए इस दिन यमुना में डुबकी लगाने की भी परंपरा है। भाईदूज पर यमुना स्नान करने का बड़ा ही महत्व बताया गया है।

Sunday, November 15, 2020

गोवर्धन पूजा का शुभ मुहूर्त और पूजा विधि जानिए।

हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा व अन्नकूट का पर्व मनाया जाता है। इस साल आज यानी 15 नवंबर 2020 दिन रविवार को गोवर्धन पूजा या अन्नकूट का त्योहार है। इसमें महिलाएं गोबर से भगवान गोवर्धन को बनाती हैं। तथा इनकी पूजा करती हैं इसके साथ गायों की भी पूजा करती है।

दिवाली के अगले दिन होती है गोवर्धन पूजा
गोवर्धन पूजा कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को मनाए जाने की परंपरा रही है। गोवर्धन पूजा यानी अन्नकूट को दिवाली के अगले दिन मनाते हैं। 14 नवंबर को दिवाली मनाई गई। आज 15 नवंबर को गोवर्धन पूजा है।

गोवर्धन पूजा का शुभ मुहूर्त।
इस पर्व पर भगवान श्री कृष्‍ण के गोवर्धन स्‍वरूप की पूजा की जाती है। उन्‍हें 56 भोग और अन्‍नकूट का प्रसाद चढ़ाए जाने की परंपरा है। इस बार कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि 15 नवंबर, सुबह 10 बजकर 36 मिनट पर शुरू हो रही है। यह 16 नवंबर की सुबह 07 बजकर, 5 मिनट तक रहेगी। गोवर्धन पूजा के लिए शुभ मुहूर्त दोपहर 3 बजकर, 19 मिनट से शाम 5 बजकर, 26 मिनट तक रहेगा।

गोर्वधन पूजा की विधि।
मान्‍यता है कि अगर इस दिन पूरे विधि विधान से भगवान गोवर्धन की पूजा की जाए तो भगवान श्री कृष्ण की कृपा प्राप्‍त होती है। इसलिए गोर्वधन पूजा करने के लिए इसकी विधि अच्‍छी तरह समझना बहुत जरूरी है। इसके लिए सबसे पहले गाय के गोबर से चौक और पर्वत बनाएं। इसके बाद इसे अच्छी तरह सुंदर फूलों से सजाएं। अब रोली, चावल, खीर, बताशे, जल, दूध, पान, केसर रखें और दीप जलाकर भगवान गोवर्धन की पूजा करें। जब पूजा संपन्‍न हो जाए तो भगवान गोवर्धन की सात बार परिक्रमा जरूर करें।

इस दौरान ध्‍यान रखें कि आपके हाथों में जल जरूर होना चाहिए। जल को किसी लोटे में लेकर इस तरह परिक्रमा करते रहें कि जल थोड़ा-थोड़ा गिरता जाए। गोवर्धन पूजा जब संपन्‍न हो जाए तो अन्‍नकूट का प्रसाद चढ़ाएं। इसे घर के सभी लोगों को दें।

Saturday, November 14, 2020

सिर्फ सोना-चांदी खरीदने का नहीं आरोग्य और चरित्र अपनाने का उत्सव है, धनतेरस।

संस्कृत भाषा में एक सूक्ति है, शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्. यानी कि शरीर ही सभी प्रकार के धर्म करने का माध्यम है. इसी बात को और अधिक विस्तार तरीके से समझाते हुए एक श्लोक में कहा गया है कि यदि धन चला गया तो समझिए कि कुछ नहीं गया, यदि स्वास्थ्य चला गया तो समझिए कि आधा धन चला गया, लेकिन अगर धर्म और चरित्र चला गया तो समझिए सबकुछ चला गया।

यानी कि भारतीय मनीषा सृष्टि के निर्माण के साथ ही मनुष्य जीवन के लिए उन्नत तरीकों और विचारों को बहुत पहले ही स्थापित कर चुकी थी. समय-समय पर इन्हीं विचारों को याद दिलाने और समाज में इनकी स्थापना बनाए रखने के लिए त्योहारों-पर्वों की परंपरा विकसित की गई. इन्हीं परंपराओं का सबसे बड़ा केंद्र है, दीपावली प्रकाश का पर्व।

क्या है धनतेरस
यह पर्व सिर्फ बाहरी उजाले का पर्व नहीं, बल्कि आतंरिक प्रकाश को जगाने का पर्व है. इसकी शुरुआत हो जाती है, कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से, जिसे कि धनत्रयोदशी और धनतेरस भी कहते हैं. आयुर्वेद और अमरता के वरदायी देव भगवान धन्वन्तरि इस उत्सव के अधिष्ठाता देव हैं. उनके नाम की शुरुआत में धन शब्द होने से यह पर्व केवल धन को समर्पित रह गया है।
भारतीय समाज विडंबनाओं में जी रहा है
पिछले कुछ 20 सालों में भारतीय समाज की विडंबना रही है कि हम तेजी से बाजार की जकड़ में आए हैं. ऐसे में धनतेरस के शुभलक्षणों का पर्व केवल धन-संपत्ति को समर्पित पर्व रह गया है।
इसके साथ ही विभिन्न आभूषण निर्माता कंपनियां लुभावने विज्ञापनों के जरिए यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि धनतेरस का अर्थ केवल उनके ब्रांड का आभूषण उत्पाद खरीदना है. जबकि धनतेरस का महत्व इससे कहीं अधिक का है।
सागर मंथन से निकले भगवान धन्वन्तरि
दरअसल, पौराणिक आधार पर मानें तो समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर निकले भगवान धन्वन्तरि ने अमरता की विद्या से आयुर्वेद को पुनर्जीवन प्रदान किया और देवताओं के वैद्य कहलाए. भगवान विष्णु का अवतार माने जाने की वजह से उनकी गणना अवतारी व्यक्तित्वों में भी होती है।
उन्होंने आरोग्य के महत्व को परिभाषित किया और इस तरह की जीवन शैली का निर्माण किया जिससे जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य निरोगी काया के साथ रह सकता है. यही आरोग्य का धन सबसे बड़ा धन है।
आरोग्य का लीजिए लाभ
कार्तिक त्रयोदशी के दिन समुद्र से उत्पन्न होने के कारण इसी दिन धनतेरस का उत्सव मनाया जाता है. इस उत्सव का पहला उद्देश्य़ आरोग्य लाभ ही है. धन्वन्तरि विद्या के अनुसार ऋतु के अनुसार भोजन, शाक, रस आदि ग्रहण करना चाहिए. व्यायाम करना चाहिए और सबसे जरूरी बात समय पर सोना और जागना, यही सबसे बड़ा धन है।

Tuesday, November 10, 2020

दिवाली के दिन क्यों की जाती है माता लक्ष्मी की पूजा।

दिवाली का त्योहार हिंदू धर्म के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। यह त्योहार अधंकार को खत्म कर चारों ओर रोशनी फैलाता है। इस साल 14 नवंबर को दिवाली मनाई जाएगी। हर्षोल्लास से भरे इस त्योहार के दिन माता लक्ष्मी, भगवान गणेश और भगवान श्रीराम की पूजा की जाती है। मां लक्ष्मी की कृपा से ही धन और वैभव की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि धन की देवी मां लक्ष्मी इस दिन धरती पर आती है और घर में प्रवेश करती हैं. तो चलिए जानते हैं आखिर क्यों मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

लक्ष्मी पूजा का महत्व
एक पौराणिक कथा के मुताबिक, एक गांव में साहूकार रहा करता था। उसकी बेटी रोजाना पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाने के लिए जाती थी। साहूकार की बेटी जिस पीपल पर वह जल चढ़ाने जाती थी, उस पेड़ पर मां लक्ष्मी का वास था। एक दिन लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी को साक्षात दर्शन दिए और कहा कि वे उसकी मित्र बनना चाहती हैं। इसके जवाब में लड़की ने अपने पिता से पूछकर बताने को कहा। वहां से लौटकर साहूकार की बेटी ने सारी बात पिता को बताई। पिता की हां के बाद अगले दिन वह लक्ष्मी जी की मित्र बन गई।

फिर एक दिन लक्ष्मीजी साहूकार की बेटी को अपने घर ले आईं और उसको पकवान खिलाए। इसके बाद लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी से पूछा कि वो उन्हें अपने घर पर आने का कब निमंत्रण देगी। लेकिन साहूकार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी इसलिए उसकी बेटी लक्ष्मीजी को बुलाने से घबरा रही थी। एक दिन साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को अपने घर बुला लिया।

साहूकार ने अपनी बेटी को बत्ती वाला दीया लक्ष्मी जी के नाम से जलाने के लिए भी कहा। उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार लेकर साहूकार के घर आ गया। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर अच्छा भोजन बनाया। कुछ देर बाद मां लक्ष्मी भगवान गणेश के साथ साहूकार के घर आईं और साहूकार के स्वागत से प्रसन्न होकर उस पर अपनी कृपा बरसाई।

लक्ष्मी जी की कृपा से साहूकार के पास किसी चीज की फिर कभी कोई कमी न हुई। तब से ही दिवाली पर मां लक्ष्मी और श्रीगणेश का स्वागत-सत्कार करने के लिए दीए जलाने और पूजा करने की परंपरा शुरू हो गई।

Wednesday, September 9, 2020

Jivitputrika Vrat: जाने जितिया का व्रत कब और क्यों कि जाती है।

ज‍ित‍िया पर्व मुख्यता उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है। इसके अलावा नेपाल के मिथिला और थरुहट में भी मनाया जाता है। जत‍िया पर्व संतान की सुख-समृद्ध‍ि के ल‍िए रखा जाने वाला व्रत है। अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका मनाया जाता है। इसे जिउतिया या जितिया व्रत भी कहत हैं. पुत्र ​के दीर्घ, आरोग्य और सुखमयी जीवन के लिए इस दिन माताएं व्रत रखती हैं। तीज की तरह यह व्रत भी बिना खाए-पिए, निर्जला रखा जाता है। जितिया व्रत इस साल गुरुवार, 10 सितंबर को रखा जाएगा। आइए जानते हैं इस व्रत की पूजन विधि, इतिहास और शुभ मुहूर्त।
जितिया व्रत पूजन विधि
छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की परंपरा होती है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के बाद अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की समृद्धि और उन्नति के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद नवमी तिथि यानी अगले दिन व्रत का पारण किया जाता है यानी व्रत खोला जाता है।
जितिया व्रत का इतिहास
महाभारत के युद्ध में पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा बहुत नाराज थे। सीने में बदले की भावना लिए वह पांडवों के शिविर में घुस गए। शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे। अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर मार डाला। कहा जाता है कि सभी द्रौपदी की पांच संतानें थीं। अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बनाकर उसकी दिव्य मणि छीन ली। क्रोध में आकर अश्वत्थामा ने अभिमन्यु की पत्नी के गर्भ में पल रहे बच्चे को भी मार डाला। ऐसे में भगवान कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को पुन: जीवित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से जीवित होने वाले इस बच्चे को जीवित्पुत्रिका नाम दिया गया। तभी से संतान की लंबी उम्र और मंगल कामना के लिए हर साल जितिया व्रत रखने की परंपरा को निभाया जाता है।
इस व्रत में माता जीवित्पुत्रिका और राजा जीमूतवाहन दोनों पूजा एवं पुत्रों की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना की जाती है। सूर्य को अर्घ्‍य देने के बाद ही कुछ खाया पिया जा सकता है।
व्रत का शुभ मुहूर्त
जितिया व्रत का शुभ मुहूर्त 10 सितंबर को दोपहर 2 बजकर 5 मिनट से अगले दिन 11 सितंबर को 4 बजकर 34 मिनट तक रहेगा। इसके बाद व्रत पारण का शुभ समय 11 सितंबर को दोपहर 12 बजे तक रहेगा।

Tuesday, September 1, 2020

आज हो रहा है गणपति बप्पा मोरया का विसर्जन जाने कैसे करते हैं

गणेश चतुर्थी यानि गणेश जी के जन्मदिवस से पूरे 10 दिन तक भक्त उत्सव मनाते हैं। चतुर्थी से शुरु होकर अनंत चतुर्दशी के दिन यानी आज गणेश जी का विसर्जन होने जा रहा है। 10 दिन के इस त्योहार में भक्तों को पता ही नहीं चलता कि 10 दिन कब गुजर गए। इस दौरान भक्त गणपति जी को अपने घर में स्थापित करते हैं और पूरे 10 दिन तक उनकी पूजा अर्चना और सेवा करते हैं। समय की कमी के कारण कुछ लोग 1.5 दिन, 3 दिन, 5 दिन या 7 दिन में ही विसर्जन कर देते हैं जबकि गणपति विसर्जन का उपयुक्त समय स्थापना के 11वें दिन होता है।
गणपति जी की विदाई करते समय भक्त काफी भावुक नजर आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारे घर का कोई सदस्य विदा होकर जा रहा हो। गणपति जी की विदाई भी उसी प्रकार भक्तजन करते है। जैसे हम अपने घर के किसी सदस्य की विदाई करते हैं। कहते हैं कि जब गणेश जी को विदा किया जाता है तो उनके साथ कुछ खाने पीने का सामान दे देना चाहिए ताकि उन्हें रास्ते में किसी भी प्रकार कि परेशानी का सामना ना करना पड़े।
गणेश विसर्जन की विधि
रोज की तरह उनकी आरती करते हैं। विशेष प्रसाद का भोग लगाते हैं। गणेश जी के मंत्रों का उच्चारण करते हैं। एक स्वच्छ पाटा लेकर उसे गंगाजल से पवित्र कर फिर घर की स्त्री से उस पर स्वास्तिक बनाते हैं। उस पर अक्षत रखते हैं, एक पीला, लाल या गुलाबी सुसज्जित वस्त्र बिछाते हैं। उसपर फूल चढ़ाते हैं साथ में पाटे के चारों कोनों पर चार सुपारी भी रखते हैं। उसके बाद श्री गणेश भगवान को उनकी स्थापना वाले जगह से उठाकर इस पाटे पर विराजित करते हैं। इसके उपरांत उनके साथ फल, फूल वस्त्र दक्षिणा एवं 5 मोदक रखते हैं। तद पश्चात उन्हें किसी स्वक्ष तालाब में विसर्जित करते हैं।

लेकिन हर साल की तरह इस साल कोरोना महामारी के चलते गणपति जी का विसर्नजन नदी, तालाब या पोखर में नहीं कर पाएंगे। इस बार हमें घर पर ही करना होगा। विसर्जन से पूर्व पुनः आरती सम्पन्न करें। श्री गणेश से खुशी-खुशी विदाई की कामना करें और सबके लिए धन, सुख, शांति, समृद्धि के साथ मनचाहे आशीर्वाद मांगें। साथ ही साथ 10 दिनों में जाने -अनजाने में हुई गलती की क्षमा मांगें फिर गणेश जी की मूर्ति का विसर्जन करें।

अनंत चतुर्दशी के व्रत से होता है, हार मनोकामना पूर्ण। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र भी रखा था यह व्रत।

भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को अनंत चतुर्दशी का त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार को अनंत चौदस नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु के अनंत स्वरूप की पूजा की जाती है। मान्यता है कि 14 साल तक लगातार अनंत चतुर्दशी का व्रत रखने से विष्णु लोक की प्राप्ति होती है।
                    "ॐ अनन्ताय नमः"
अनंत चतुर्दशी का व्रत काफी फलदाई साबित होता है। कहा जाता है कि जब पांडव अपने राज्य को हारकर बनवास के लिए निकले तो भगवान श्री कृष्ण के कहने पर उन्होंने यह व्रत रखा। इस व्रत के प्रभाव से पांडव महाभारत का युद्ध भी जीते और अपना राज्य भी वापस पाए।

एक अन्य मान्यता है कि जब सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र अपना सब कुछ दान करने के बाद अपने घर को त्याग दिया था जंगल जंगल भटकने के बाद उन्हें किसी ने अनंत चतुर्दशी का व्रत करने को कहा। इस व्रत के प्रभाव से सत्यवादी हरिचंद को अपना राज्य वापस मिला।
अनंत चतुर्दशी के पावन पर्व पर सृष्टि के पालनहार और विघ्नहर्ता के चरणों में प्रणाम और यही प्रार्थना कि सब सुखी हों, सबका मंगल और कल्याण हो। 

Monday, August 31, 2020

ओणम पर्व की कुछ रोचक जानकारियां, कब और कैसे मनाया जाता हैं।

भार‍त विविध धर्मों, जातियों तथा संस्कृतियों को मानने वाले का देश है। भारत भर के उत्सवों एवं पर्वों का विश्व में एक अलग स्थान है। यहां हर रोज त्योहार कोई न कोई रूप में मनाया जाता हैं। जिसमे अपने इस्ट देवी देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है। उनमें से एक त्योहार ओनम का त्योहार हैं। यह त्योहार दक्षिण भारत में खासकर केरल में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।

ओणम को खासतौर पर खेतों में फसल की अच्छी उपज के लिए मनाया जाता है। 1 सितंबर से शुरू हुआ यह त्योहार 13 सितंबर तक मनाया जाएगा। ओणम इसलिए भी विशेष है क्योंकि इसकी पूजा मंदिर में नहीं बल्कि घर में की जाती है। सर्वधर्म समभाव के प्रतीक केरल प्रांत का मलयाली पर्व 'ओणम' समाज में सामाजिक समरसता की भावना, प्रेम तथा भाईचारे का संदेश पूरे देश में देता हैं। और देश की एकता एवं अखंडता को मजबूत करने की प्रेरणा देता है। प्राचीन मान्यता के अनुसार राजा बलि ओणम के दिन अपनी प्रजा से मिलने आते हैं।
उन्हें यह सौभाग्य भगवान विष्णु से मिला था। उसके चलते समाज के लोग विष्णु की आराधना और पूजा करने के साथ ही अपने राजा का स्वागत करते हैं। 
ओणम पर्व पर राजा बलि के स्वागत के लिए घरों की आकर्षक साज-सज्जा के साथ तरह-तरह के पकवान बनाकर उनको भोग अर्पित करती है। और हर घर को और द्वार पर रंगोली से सजाया और दीप जलाया जाता है। और यह परंपरा वर्षों से चला आ रहा हैं। इस अवसर पर मलयाली समाज के लोग एक-दूसरे को गले मिलकर शुभकामनाएं देते हैं। साथ ही परिवार के लोग और रिश्तेदार इस परंपरा को साथ मिलकर मनाते हैं। 
ओणम पर्व की मान्यता : मान्यता के अनुसार राजा बलि केरल के राजा थे, उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी व संपन्न थी। किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं थी। वे महादानी भी थे। उन्होंने अपने बल से तीनों लोकों को जीत लिया था। इसी दौरान भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर आए और तीन पग में उनका पूरा राज्य लेकर उनका उद्धार कर दिया।

माना जाता है कि वे साल में एक बार अपनी प्रजा को देखने के लिए आते हैं। तब से केरल में हर साल राजा बलि के स्वागत में ओणम का पर्व मनाया जाता है।

Sunday, July 5, 2020

पर्व गुरु पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है, आइए जानते हैं इसका रहस्य।

जीवन में हम जो कुछ भी प्राप्त करते हैं कहीं न कहीं गुरु की कृपा का ही फल है। गुरु का मतलब शिक्षक से नहीं बल्कि गुरु माता-पिता, भाई, दोस्त किसी के रूप में हो सकते हैं। जिनका नाम सुनते ही हृदय में सम्मान का भाव जगता है। सम्मान प्रकट करने के लिए किसी दिन का नहीं बल्कि प्रत्येक दिन गुरु वंदनीय होते हैं। हालांकि, जीवन में भौतिक रूप से जीवन निर्माता के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का मौका नहीं मिलता है। ऐसे में गुरु पूर्णिमा वो खास दिन होता है जहां हम भौतिक एवं मन दोनों ही रूप से गुरु की वंदना, सम्मान करते हैं।
इस साल गुरु पूर्णिमा 5 जुलाई को है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं क्योंकि इस दिन वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। गुरु पूर्णिमा वह दिन है जब पहले गुरु का जन्म हुआ था। हमारे देश में गुरुओं का स्थान सबसे ऊंचा है। एक गुरू ही अपने शिष्य को अंधकार से निकालकर और उसे सही मार्ग पर लाता है। गुरु के मार्गदर्शन के बिना शिष्य कभी सफल नहीं हो सकता। इसी वजह से अपने गुरुओं को सम्मान देने के लिए गुरू पूर्णिमा मनाया जाता है। 

अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं, तत्पदंदर्शितं एनं तस्मै श्री गुरुवे नम:

अर्थात यह श्रृष्टि अखंड मंडलाकार है। बिंदु से लेकर सारी सृष्टि को चलाने वाली अनंत शक्ति का, जो परमेश्वर तत्व है, वहां तक सहज संबंध है।  इस संबंध को जिनके चरणों में बैठ कर समझने की अनुभूति पाने का प्रयास करते हैं, वही गुरु है। जैसे सूर्य के ताप से तपती भूमि को वर्षा से शीतलता और फसल पैदा करने की ताकत मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में शिष्यों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन सनातन धर्म में गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं।अध्ययन के लिए अगले चार महीने उपयुक्त माने गए हैं। पिछले वर्षों के मुकाबले इस वर्ष गुरु पूर्णिमा का स्वरूप बहुत कुछ बदला हुआ है। कोरोना संक्रमण के कारण गुरु वंदना भी ऑनलाइन हो रही है। समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में सफलता के शीर्ष पर बैठे लोग अपने-अपने तरीके से गुरु को याद कर रहे हैं।

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान देवताओं से भी ऊपर माना गया है। संत कबीर अपने दोहे 
"गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।"
 इस दोहे के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में गुरु के महत्व को दर्शाया गया है। संत कबीर कहते हैं गुरु व्यक्ति के जीवन से अंधकार को दूर कर परमात्मा से मिलाता है। ईश्वर की महिमा गुरु के माध्यम से ही जान पाते हैं। अत: गुरु का स्थान देवताओं से भी श्रेयकर है। गुरु पूर्णिमा के दिन विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संगठनों की ओर से विशेष आयोजन कर गुरुओं के प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है। कोरोना वायरस के कारण इस बार सभी जगहों पर सामूहिक कार्यक्रम को स्थगित कर अपने-अपने घरों में ही गुरु का पूजन करने को कहा जा रहा है। अधिकतर जगहों पर लोग ऑनलाइन गुरु पूजन कार्यक्रम में शामिल होंगे।

"इस गुुुुुुरू पूर्णिमा के अवसर पर हम उन सब गुरु को नमन करते हैं, जिन्होंने हमें अंधकार से प्रकाशमय की ओर अग्रसर किया !"

मैं तो इंसानियत से मजबूर था तुम्हे बीच मे नही डुबोया" मगर तुमने मुझे क्यों काट लिया!

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