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Monday, August 31, 2020

मदर टेरेसा का वह सच्चाई जो मीडिया ने समाज के सामने कभी आने नहीं दिया।

26 अगस्त 1910 को जन्मी टेरेसा जिन्हें रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा कलकत्ता की संत टेरेसा के नाम से नवाज़ा गया है। उनका जन्म आन्येज़े गोंजा बोयाजियू के नाम से एक अल्बेनीयाई परिवार में उस्कुब, उस्मान साम्राज्य में हुआ था। टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं, जिन्होंने 1948 में स्वेच्छा से भारतीय नागरिकता ले ली थी। हमारे इतिहासकारों के अनुसार शांति दूत टेरेसा ममता की मूरत थीं। 
दीन-दुखियों को गले लगाना और बीमार लोगों को 
मिशनरीज ऑफ चैरिटी में दाखिल करा कर उसका धर्म परिवर्तन करना उनका प्राथमिकता होती थी। भारत अपने दरिया दिली के लिए जाना जाता रहा हैं। संत टेरेसा के साथ भी ऐसा ही हुआ। संत टेरेसा कैथोलिक थीं, लेकिन उन्हें भारत की नागरिकता मिली हुई थी। उन्हें भारत के साथ साथ कई अन्य देशों की नागरिकता मिली हुई थी, जिसमें ऑटोमन, सर्बिया, बुल्गेरिया और युगोस्लाविया शामिल हैं। 
साल 1946 में उन्होंने गरीबों, असहायों की सेवा का संकल्प लिया था, जो सरासर झूठ है। निस्वार्थ सेवा के लिए टेरेसा ने 7 अक्तूबर 1950 में कोलकाता में 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की थी। यह सच है। जिसमे 12 सदस्यों के साथ संस्था की शुरुआत भी हुई। जो उस समय करोड़ों का दान लेकर विदेशो में चर्च और धर्म के नाम पर पैसा जाता था। भारत में सिर्फ दान वसूला जाता था। और भारत की भोली भाली जनता सिर्फ मिशनरीज का बिस्तार करने में चैरिटी का पैसा उपयोग होता था। अब यह संस्था 133 देशों में युद्ध स्तर पे अपना काम कर रही हैं। भारत में इसका उदाहरण पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सो में देखा और सुना जा सकता हैं। 133 देशों में इनकी लगभग 4501 सिस्टर हैं। 1981 में उन्होंने अपना नाम बदल लिया था। अल्बानिया मूल की टेरेसा ने कोलकाता में गरीबों और पीड़ित लोगों के लिए जो किया वो दुनिया में अभूतपूर्व माना जाता हैं। मिशनरीज ऑफ चैरिटी संस्था में 100 से कम मरीज भर्ती थे। लेकिन उनकी संस्था में कोई डॉक्टर नहीं होते थे। पूरा देखभाल उनकी संस्था की सिस्टर ही करती थी। और उन्हें यहां तक कि किसी को दर्द निवारक दवा भी नहीं दी जाती थी। और ना ही उनके संस्था में दर्द निवारक दवा होती थी। मदर टेरेसा अपनी मृत्यु तक कोलकाता में ही रहीं और अपने नेक कार्यों में सफल रही।
आज भी उनकी संस्था अपना कार्य ईमानदारी से कर रही हैं। सबसे आशचर्य की बात तब होती हैं जब गरीब बीमार आशहाय लोगों को इलाज की जरूरत पड़ती थी तो 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' संस्था की सिस्टर ही डाक्टर का कार्य करती थी। जबकि संत टेरेसा अपने छोटी सी इलाज के लिए विदेशों में जाती थी।
अब हमें यह जानकर आश्चर्य होता है कि सरकार उन्हें कौन सा नेक काम करने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार के साथ भारत रत्न, टेम्पटन प्राइज, ऑर्डर ऑफ मेरिट और पद्म श्री से भी नवाजा। 
 रॉबिन फॉक्स (Robin fox) रॉबिन फॉक्स जो एक ब्रिटिश जर्नलिस्ट थे उन्होंने अपने एक रिपोर्ट में बताया था कि मदर टेरेसा का आश्रम किसी भी तरह से एक हॉस्पिटल नहींं था। जहां मरीजों का इलाज हो सके। मलेरिया वाले मरीज और जिनका इलाज नहीं हो सकता था आखरी स्टेज कैंसर वाला मरीजों दोनों को एक साथ रखा जाता था। जिन मरीजों का इलाज दूसरे अस्पताल में आसानी से हो सकता था। आश्रम में उनकी भी दर्दनाक मौत हो जाती थी। मरीजोंं को लगाए जाने वाले इंजेक्शन कई बार गर्म पानी में धोकर लगाए जाते थे। मदर टेरेसा केेे आश्रम का एक दूसरा नाम भी था house of dying यानी मरने वालों का घर।

Converting dying people मरते हुए लोगों का धर्म परिवर्तन, मरते हुए हिंदू और मुसलमानोंं से पूछा जाता था की आपको स्वर्ग या जन्नत का टिकट चाहिए। मरीज के हां कहने पर उसका धर्म परिवर्तन किया जाता था। उसको कहा जाता था कि उसके दर्द को कम करने के लिए इलाज कीया जा रहा हैं और उसके सर पर पानी डालकर उसके धर्म को back ties यानी क्रिश्चिचन बनाया जाता था।
Thousands of Crores in Vatican Trust वैक्तिकन बैंक में हजारों करोड़ों रुपए अपने आश्रमों से इकट्ठा किया गया चंदा Bank for the work of religion में जमा करती थे यह बैंक वेटिकन चर्च मैनेज  करता था। जिसकेे लिए मदर टेरेसा काम करती थी। सालोंं से जमा किए गए पैसे इतने ज्यादा थेे कि उस बैंक में आधे से ज्यादा पैसे मदर टेरेसा के ही थे। अगर मदर टेरेसा उस पैसे को निकाल ले तो शायद बैंक बर्बाद हो जाता। शायद यही कारण रहा होगा की आश्रम का हालत इतनी बुरी थी क्योंकि इकट्ठा किया गया पैसा सीधे बैंक जाता था और लोगों के लिए इस्तेमाल नहीं होता था।
False image in media मीडिया का झूठ Arup Chaudhari नाम के एक जनरलिस्ट ने अपनेे किताब में सारे समााज सुधारक के बारे में लिखा है उनका कहना था कि मीडिया मदर टेरेसा को हेल्पर ऑफ द पुअर यानी गरीबों का मसीहा जबकि यह बिल्कुल झूठ था। मदर टेरेेसा का सबसेे बड़ा आश्रम मिशनरीज ऑफ चैरिटी कोलकाता मे था। इस आश्रम में 100 से भी कम लोग भर्ती किये गए थे। लेकिन उसी वक्त की असेंबली ऑफ गॉड नाम के संस्था के द्वारा 18000 लोगों को खाने-पीने का सामान रोज बाटा जाता था। आज लोग ऐसे आश्रम का नाम भी नहीं जानते हैं। यही नहीं मदर टेरेसा के 8 ऐसेे आश्रम भी थे जहां एक भी गरीब आदमी नहीं 
थे। आश्रम सिर्फ चंदा इकट्ठा कर बैंक में जमा और धर्म परिवर्तन करने के लिए बनाया गया था।
Relation with controversial figure अमीरों से रिश्ता मदर टेरेसा के रिश्ता कुछ ऐसे लोगों से भी था जिन्हें सरकार क्रिमिनल्स घोषित कर चुकी थी। Robert Maxwell और Charles Creting उन लोगों में से थे जो मदर टेरेसा के आश्रम में करोड़ों रुपए दान करते थे और उन पर हजारों करोड़ों रुपए ठगने का आरोप था। Lisieo jelly इटालियन मडर र को मदर टेरेसा नोबेल पुरस्कार देने केे लिए सहमति भी दी थी। 1975 में इमरजेंसी के दौरान लोग परेशान थे लेकिन मदर टेरेसा ने इमरजेंसी का समर्थन किया था और पॉलीटिशियन के साथ थे।

Saturday, July 4, 2020

हिंदुत्व और हिंदुस्तान के वास्तविक स्वरूप से विश्व को अवगत कराने वाले युग प्रवर्तक स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन।

स्वामी विवेकानन्द(जन्म 12 जनवरी,1863 मृत्यु 4 जुलाई,1902) वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था भारत  का। आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन   अमेरिका  और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था लेकिन उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनो" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।

कोलकाता के एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार  में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवो मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं; इसलिए मानव जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरत मंदो मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त्त्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानंद ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानंद को एक देशभक्त संन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। महान व्यक्तित्व के थे स्वामीजी।
 एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की सेवा में सतत संलग्न रहे।
स्वामी विवेकानंद का दिमाग बाकी विद्यार्थियों की तुलना काफी तेज था।  वह मोटी मोटी किताबों को बहुत जल्दी पढ़ लेते थे, और उसे याद कर लेते थे ।

सम्मेलन में भाषण का कुछ अंश

मेरे अमरीकी भाइयो और बहनो!

आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।


🤔 बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्वामीजी का शैक्षिक प्रदर्शन औसत था। उनको यूनिवर्सिटी एंट्रेंस लेवल पर 47 फीसदी, एफए में 46 फीसदी और बीए में 56 फीसदी अंक मिले थे।
🤔 विवेकानंद चाय के शौकीन थे। उन दिनों जब हिंदू पंडित चाय के विरोधी थे, उन्होंने अपने मठ में चाय को प्रवेश दिया। एक बार बेलूर मठ में टैक्स बढ़ा दिया गया था। कारण बताया गया था कि यह एक प्राइवेट गार्डन हाउस है। बाद में ब्रिटिश मजिस्ट्रेट की जांच के बाद टैक्स हटा दिए गए।

🤔 एक बार विवेकानंद ने महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक को बेलूर मठ में चाय बनाने के लिए मनाया। गंगाधर तिलक अपने साथ जायफल, जावित्री, इलायची, लॉन्ग और केसर लाए और सभी के लिए मुगलई चाय बनाई।

🤔 उनके मठ में किसी महिला, उनकी मां तक, को जाने की अनुमति नहीं थी। एक बार जब उनको काफी बुखार था तो उनके शिष्य उनकी मां को बुला लाए। उनको देखकर विवेकानंद चिल्लाए, 'तुम लोगों ने एक महिला को अंदर आने की अनुमति कैसे दी? मैं ही हूं जिसने यह नियम बनाया और मेरे लिए ही इस नियम को तोड़ा जा रहा है।

🤔 बीए डिग्री होने के बावजूद नरेंद्रनाथ (विवेकानंद का असल नाम) को रोजगार की तलाश में घर-घर जाना पड़ता था। वह जोर से कहते, 'मैं बेरोजगार हूं।' नौकरी की तलाश में जब थक गए तो उनका भगवान से भरोसा उठ गया और लोगों से कहने लगते कि भगवान का अस्तित्व नहीं है।

🤔 पिता की मृत्यु के बाद उनके परिवार पर संकट आ गया था। गरीबी के उन दिनों में सुबह विवेकानंद अपनी माता से कहते थे कि उनको कहीं से दिन के खाने के लिए निमंत्रण मिला है और घर से बाहर चले जाते थे। असल में उनको कोई निमंत्रण नहीं मिलता था बल्कि वह ऐसा इसिलए करते थे ताकि घर के अन्य लोगों को खाने का ज्यादा हिस्सा मिल सके। वह लिखते हैं, 'कभी मेरे खाने के लिए बहुत कम बचता था और कभी तो कुछ भी नहीं बचता था। बीए डिग्री होने के बावजूद नरेंद्रनाथ (विवेकानंद का असल नाम) को रोजगार की तलाश में घर-घर जाना पड़ता था। वह जोर से कहते, 'मैं बेरोजगार हूं।' नौकरी की तलाश में जब थक गए तो उनका भगवान से भरोसा उठ गया और लोगों से कहने लगते कि भगवान का अस्तित्व नहीं है।
हिन्दू, हिंदुत्व और हिंदुस्तान के वास्तविक स्वरूप से विश्व को अवगत कराने वाले युग प्रवर्तक एवं युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि पर उनको कोटि-कोटि नमन।

मैं तो इंसानियत से मजबूर था तुम्हे बीच मे नही डुबोया" मगर तुमने मुझे क्यों काट लिया!

नदी में बाढ़ आती है छोटे से टापू में पानी भर जाता है वहां रहने वाला सीधा साधा1चूहा कछुवे  से कहता है मित्र  "क्या तुम मुझे नदी पार करा ...