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Thursday, June 1, 2023

क्या आप नींव खोदे बिना आज एक गगनचुंबी इमारत बनाने की कल्पना कर सकते हैं? बृहदेश्वर मंदिर तमिलनाडु।



यह तमिलनाडु का बृहदेश्वर मंदिर है, यह बिना नींव का मंदिर है । इसे इंटरलॉकिंग विधि का उपयोग करके बनाया गया है इसके निर्माण में पत्थरों के बीच कोई सीमेंट, प्लास्टर या चिपकने वाले पदार्थ का इस्तेमाल नहीं किया गया था इसके बावजूद 1000 वर्ष में 6 बड़े भूकंपो को झेलकर आज भी अपने मूल स्वरूप में है। 216 फीट ऊंचा यह मंदिर उस समय दुनिया का सबसे ऊंचा मंदिर था। इसके निर्माण के कई वर्षों बाद बनी पीसा की मीनार खराब इंजीनियरिंग की वजह से समय के साथ झुक रही है लेकिन बृहदेश्वर मंदिर पीसा की मीनार से भी प्राचीन होने के बाद भी अपने अक्ष पर एक भी अंश का झुकाव नहीं रखता। मंदिर के निर्माण के लिए 1.3 लाख टन ग्रेनाइट का उपयोग किया गया था जिसे 60 किलोमीटर दूर से 3000 हाथियों द्वारा ले जाया गया था। इस मंदिर का निर्माण पृथ्वी को खोदे बिना किया गया था यानी यह मंदिर बिना नींव का मंदिर है।

मंदिर टॉवर के शीर्ष पर स्थित शिखर का वजन 81 टन है आज के समय में इतनी ऊंचाई पर 81 टन वजनी पत्थर को उठाने के लिए आधुनिक मशीनें फेल हो जाएंगी। बृहदीश्वर मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किए गए इंजीनियरिंग के स्तर को दुनिया के सात आश्चर्यों में से किसी भी आश्चर्य के निर्माण की तकनीक मुकाबला नहीं कर सकती और आज की तकनीकों को देखकर भविष्य में भी कई सदियों तक ऐसा निर्माण असंभव दिखता है।

Wednesday, November 10, 2021

माता सीता और द्रोपदी ने क्यों किया था छठ पूजा ? जानें इस महापर्व का इतिहास।

आज छठ पूजा का तीसरा दिन है। छठ पर्व पर सूर्य देव की पूजा का बहुत महत्व होता है, भगवान सूर्य को इस दिन शाम को और दूसरे दिन सुबह अर्घ्य दिया जाता है। छठ का पहला दिन नहाय खाए से शुरू होता है। उत्तर प्रदेश और खासकर बिहार में मनाया जाने वाला यह पर्व अपने आप में काफी खास है। इसे पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। छठ पूजा का त्योहार चार दिन तक चलता है। सूर्य देव की आराधना और संतान के सुखी जीवन की कामना के लिए समर्पित छठ पूजा हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को होता है। इस वर्ष छठ पूजा 11 नवंबर गुरुवार को है।

राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी।
छठ पर्व कैसे शुरू हुआ इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर है। कहते हैं राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वह पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वह सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा।

सीता जी ने 6 दिनों तक सूर्यदेव की उपासना की
राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी और तभी से छठ पूजा होती है। इस कथा के अलावा एक कथा राम-सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम और सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला किया था। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिड़क कर उन्हें पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। उस समय सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर 6 दिनों तक भगवान सूर्यदेव की पूजा की थी।

द्रौपदी ने भी छठ व्रत रखा था।
एक और मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वह रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई है।

Thursday, September 30, 2021

अखिल भारतीय अखाडा परिषद के अध्य्क्ष रहे ब्रह्मलीन महंत नरेंद्र गिरी के उत्तराधिकारी होंगे शिष्य बलबीर गिरि।

अखिल भारतीय अखाडा परिषद के अध्य्क्ष रहे ब्रह्मलीन महंत नरेंद्र गिरी की हाल ही में संदिग्द परिस्थिति में मौत हो गई थी। महंत नरेंद्र गिरी की मौत के बाद उनके उत्तरधिकारी पर फैसला हो गया है। महंत नरेंद्र गिरी के शिष्य बलवीर गिरी को उत्तराधिकारी बनाया जाएगा।  

यह फैसला अखाड़ा परिषद के पंच परमेश्वरों ने वसीयत के आधार पर लिया है। अखाड़ा परिषद के पंच परमेश्वरों ने फैसला लेते हुए महंत बलवीर गिरि को श्री मठ बाघंबरी की गद्दी पर बैठाया जाएगा। 5 अक्टूबर को होने वाले नरेंद्र गिरी के षोडशी संस्कार के मौके पर बाघंबरी मठ की कमान बलवीर गिरि को सौंपी जाएगी। वसीयत के आधार पर ही मठ का उत्तराधिकारी चुना जाता है।

महंत नरेन्द्र गिरि की संदिग्द परिस्थिति में मौत हो गई थी। मौत के बाद महंत जी के कमरे से एक सुसाइड नोट मिला था। इसमें बलवीर गिरि को उत्तराधिकारी घोषित किया था। हालांकि बाद में इस सुसाइड नोट की विश्वसनीयता पर सवाल उठे। मठ पंच परमेश्वरों ने सुसाइड नोट को फर्जी बताया और बलवीर गिरि को उत्तराधिकारी बनाने से इनकार कर दिया था। हालांकि नरेन्द्र गिरि की अब वसीयत सामने आई है।

इसमें जून 2020 में बलवीर गिरि को अपना उत्तराधिकारी बनाया है। हैरानी की बात ये है कि वसीयत के आधार पर ही मठ का उत्तराधिकारी चुना जाता है। 2004 में महंत नरेंद्र गिरि भी वसीयत के आधार पर ही मठाधीश बने थे। दरअसल, महंत नरेंद्र गिरि संदिग्ध मौत के बाद उनका सुसाइड नोट मिला था, जिसमें उन्होंने बलवीर गिरि को उत्तराधिकारी घोषित किया था।लेकिन मठ पंच परमेश्वरों ने सुसाइड नोट को फर्जी बताते हुए बलवीर गिरि को उत्तराधिकारी बनाने से इनकार कर दिया था।

एक मीडिया पोर्टल ने नरेंद्र गिरि की रजिस्टर्ड वसीयत का खुलासा किया था, जिसमे उन्होंने जून 2020 में बलवीर गिरि को अपना उत्तराधिकारी बनाया है। बता दें वसीयत के आधार पर ही मठ का उत्तराधिकारी चुना जाता है। 2004 में महंत नरेंद्र गिरि भी ऐसे ही मठाधीश बनें थे। 

महंत नरेंद्र गिरि ने तीन वसीयत बनाई थी. पहले वसीयत में उन्होंने बलवीर गिरि को उत्तराधिकारी बनाया था। इसके बाद 2011 में एक दूसरी वसीयत बनवाई,जिसमें आनंद गिरि को उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन आनंद गिरि से विवाद के बाद उन्होंने अपनी पहले की दोनों वसीयतों को रद्द करते हुए तीसरी वसीयत बनाई जिसमें एक बार फिर उन्होंने बलवीर गिरि को उत्तराधिकारी बनाया।

Tuesday, May 18, 2021

"बृहदेश्वर मंदिर" क्या आधुनिक तकनीकों वाला युग नींव खोदे बिना एक गगनचुंबी इमारत के निर्माण की कल्पना कर सकता है।

यह तमिलनाडु का बृहदेश्वर मंदिर है, यह बिना नींव का मंदिर है । इसे इंटरलॉकिंग विधि का उपयोग करके बनाया गया है इसके निर्माण में पत्थरों के बीच कोई सीमेंट, प्लास्टर या किसी भी तरह के चिपकने वाले पदार्थों का प्रयोग नहीं किया गया है इसके बावजूद पिछले 1000 वर्षों में 6 बड़े भूकंपो को झेलकर भी आज अपने मूल स्वरूप में यथा संभव स्थिति में खड़ा है।

216 फीट ऊंचा यह मंदिर उस समय दुनिया का सबसे ऊंचा मंदिर था। इसके निर्माण के कई वर्षों बाद बनी पीसा की मीनार खराब इंजीनियरिंग की वजह से समय के साथ झुक रही है लेकिन बृहदेश्वर मंदिर पीसा की मीनार से भी प्राचीन होने के बाद भी अपने अक्ष पर एक भी अंश का झुकाव नहीं रखता।

इस मंदिर के निर्माण के लिए 1.3 लाख टन ग्रेनाइट का उपयोग किया गया था जिसे 60 किलोमीटर दूर से 3000 हाथियों द्वारा ले जाया गया था। इस मंदिर का निर्माण पृथ्वी को खोदे बिना किया गया था यानी यह मंदिर बिना नींव का मंदिर है।

मंदिर टॉवर के शीर्ष पर स्थित शिखर का वजन 81 टन है आज के समय में इतनी ऊंचाई पर 81 टन वजनी पत्थर को उठाने के लिए आधुनिक मशीनें फेल हो जाएंगी।

बृहदीश्वर मंदिर के निर्माण के लिए प्रयोग किए गए इंजीनियरिंग के स्तर को दुनिया के सात आश्चर्यों में से किसी भी आश्चर्य के निर्माण की तकनीक मुकाबला नहीं कर सकती और आज की तकनीकों को देखकर भविष्य में भी कई सदियों तक ऐसा निर्माण सम्भव नहीं दिखता है ।

प्राचीन मंदिरो के दर्शन और उनका इतिहास जानने के लिए हमारा पेज follow करे . . !

Wednesday, April 21, 2021

कुंभ में होने वाले रामनवमी के स्नान के लिए प्रसाशन ने 23 सेक्टर में बांटा मेला क्षेत्र।

कोरोना वायरस के बढ़ते संकट को देखते हुए मेला प्रशासन ने रामनवमी के पावन अवसर पर होने वाले स्नान की पूरी तैयारी कर ली हैं। प्रशासन ने पूरे मेला क्षेत्र को 23 सेक्टर में बांट दिया है। हर सेक्टर के लिए मजिस्ट्रेट भी नियुक्त किए गए हैं। रामनवमी का स्नान कुंभ मेले के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। देखा जाए तो कोविड के खतरे के कारण श्रद्धालुओं की संख्या काफी कम हो गई है। प्रशासन के अनुसार स्नान के लिए आने वाले हर एक श्रद्धालु को आरटी पीसीआर की नेगेटिव रिपोर्ट लाना अनिवार्य है।

वहीं, आने वाले सभी यात्रियों को कोरोना के नियमों का पालन करना भी अनिवार्य होगा। उप मेला अधिकारी अंशुल सिंह ने बताया कि, रामनवमी पर्व को लेकर मेला प्रशासन की सभी तैयारी पुण्य कर ली गई हैं, हालांकि दिल्ली और देश के बड़े शहरों में हुए लॉक डाउन के बाद श्रद्धालुओं की संख्या कम हो सकती है, लेकिन कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए रामनवमी स्नान पर सख्ती बरती जाएगी।

आपको बता दें कि, हरिद्वार कुंभ में शाही स्नान के लिये आए तमाम अखाड़ों के साधु-संत कोरोना संक्रमित हो चुके हैं। इसके अलावा, महामंडलेश्वर की मौत के बाद अखाड़ों में भी भय है। पीएम की अपील के बाद जूना अखाड़े ने सबसे पहले कुंभ की समाप्ति का एलान किया।

कन्या पूजन करते समय न करें ये काम, रखें इन बातों का ध्यान।

नवरात्रि की अष्टमी और नवमी तिथि पर घरों और मंदिरो में कन्या पूजन किया जाता है। नवरात्रि के बाद कन्या पूजन का विशेष महत्व माना गया है। नवरात्रि की अष्टमी और नवमी तिथियों पर मां महागौरी और सिद्धिदात्री की पूजा करने का प्रावधान है। इन तिथियों पर कन्याओं को घरों में बुलाकर भोजन कराया जाता है उन्हें अन्य वस्तुएं दान में दी जाती हैं। वहीं दूसरी तरफ बंगाल, ओडिशा, त्रिपुरा और मणिपुर में दुर्गा पूजा में अष्‍टमी का विशेष महत्‍व है। पंडालों में इस दिन दुर्गा की नौ शक्तियों का आह्वान किया जाता है। हम आपको बताने जा रहे हैं कि नवरात्रि में कन्या पूजन के दौरान हमें किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए और कैसे किया जाता है कन्या पूजन..!

अष्‍टमी के दिन कैसे करें कन्‍या पूजन?

1- कन्‍या पूजन के दिन सुबह-सवेरे स्‍नान कर भगवान गणेश और महागौरी की पूजा करें।

2- कन्‍या पूजन के लिए दो साल से लेकर 10 साल तक की नौ कन्‍याओं और एक बालक को आमंत्रित करें। बता दें, कि बालक को बटुक भैरव के रूप में पूजा जाता है। मान्‍यता है कि भगवान शिव ने हर शक्ति पीठ में माता की सेवा के लिए बटुक भैरव को तैनात किया हुआ है। कहा जाता है कि अगर किसी शक्‍ति पीठ में मां के दर्शन के बाद भैरव के दर्शन न किए जाएं तो दर्शन अधूरे माने जाते हैं।

3-कन्याओं की संख्या कम से कम सात या नौ होनी ही चाहिए। कन्याएं कम हों तो दो कन्याओं को भी भोजन कराया जा सकता है।

4- ध्‍यान रहे कि कन्‍या पूजन से पहले घर में साफ-सफाई हो जानी चाहिए। कन्‍या रूपी माताओं को स्‍वच्‍छ परिवेश में ही बुलाना चाहिए।

5- कन्‍याओं को माता रानी का रूप माना जाता है। ऐसे में उनके घर आने पर माता रानी के जयकारे लगाएं।

6- सभी कन्‍याओं को बैठने के लिए आसन दें।

7- फिर सभी कन्‍याओं के पैर धोएं।

8- अब उन्‍हें रोली, कुमकुम और अक्षत का टीका लगाएं।

9- इसके बाद उनके हाथ में मौली बाधें।

10- अब सभी कन्‍याओं और बालक को घी का दीपक दिखाकर उनकी आरती उतारें।

11- आरती के बाद सभी कन्‍याओं को यथाशक्ति भोग लगाएं। आमतौर पर कन्‍या पूजन के दिन कन्‍याओं को खाने के लिए पूरी, चना और हलवा दिया जाता है।

12- भोजन के बाद कन्‍याओं को यथाशक्ति भेंट और उपहार दें।

13- इसके बाद कन्‍याओं के पैर छूकर उन्‍हें विदा करें।

धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, दो वर्षीय कन्याओं से दस वर्षीय कन्याएँ, कुमारी पूजा के लिये उपयुक्त होती है। एक वर्षीय कन्या को कुमारी पूजा में सम्मिलित नहीं करना चाहिये। 2 से 10 वर्ष की कन्याएं दुर्गा के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन पवित्र रूपों के नाम निम्नलिखित हैं-
कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शाम्भवी, दुर्गा, भद्रा या सुभद्रा

इन बातों का रखें ध्यान-
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, कुमारी पूजा के समय प्रत्येक कन्या को एक निश्चित समर्पित मन्त्र के साथ पूजा जाता है। कुमारी पूजा के लिये उपयुक्त कन्या, स्वस्थ तथा सभी प्रकार के रोगों व शारीरिक दोषों से मुक्त होनी चाहिये। माना जाता है कि, सभी प्रकार की इच्छाओं को पूरा करने के लिये ब्राह्मण कन्याओं का पूजन करना चाहिये। वैभव तथा प्रसिद्धि पाने के लिये क्षत्रिय कन्याएँ तथा धन व समृद्धि के लिये वैश्य कन्याओं का पूजन करना चाहिये। जिनके मन में पुत्र प्राप्ति की मनोकामना है, उनके लिये शूद्र कन्याओं के पूजन का सुझाव दिया गया है।

Sunday, November 29, 2020

जनेऊ पहनने के अप्रत्यक्ष लाभ जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी लाभप्रद है। Part 2

शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस केन्द्र को हम एक्युप्रेश करते है।

लाभ जो अप्रत्यक्ष है जिसे कम लोग जानते है।
कान के नीचे वाले हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़ने वाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है। अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं तो प्यास कम लगेगी।

एक्युप्रेशर की शब्दवली में इसे  point जीवी 20 या डीयू 20
इसका लाभ आप देखे
जीवी 20
कहां : कान के पीछे के झुकाव में। 
उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा, और यूटरस की बीमारियों में असरदार।

इसके अलावा इसके कुछ अन्य लाभ जो क्लीनिकली शुद्ध है।
1. बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।

2. जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।

3. जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।

4. जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।

5. दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।

6. कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।

7. कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।

Monday, November 9, 2020

अगर धनतेरस के दिन नहीं खरीद पा रहे हैं सोने और चांदी तो खरीदें ये चीजें।

दीपावली का त्योहार आने वाला है, लेकिन दीपावली से पहले धनतेरस का त्योहार आता है। जिसका मह्त्व हिन्दू संस्कृति में बहुत बड़ा है। हर साल कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हर साल धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है, जो छोटी दिवाली से एक दिन पहले आता है। इस दिन भगवान धनवंतरि की पूजा की जाती है और यह एक शुभ दिन माना जाता है. सोना, चांदी के आभूषण और बर्तन आदि चीजें खरीदना शुभ माना जाता है। इस साल धनतेरस 13 नवम्बर यानी शुक्रवार को है। परन्तु आप में यदि सोना-चांदी जैसी महंगी वस्तुएं खरीदने की क्षमता नहीं है तो आप घबराएं नहीं। आज आपको उन वस्तुओं के बारे में जानकारी दी जा रही है जिसकी खरीददारी में उतना ही लाभ होता है जितना की सोना चांदी खरीदने में. ये चीजें निम्नलिखित हैं।

पीतल: धनतेरस के दिन पीतल की वस्तु खरीदने से भी उतना ही लाभ होता है जितना कि सोना चांदी। सोने-चांदी के बाद पीतल की धातु ही सबसे शुभकारी मानी जाती है। धनतेरस पर पीपल की वस्तुयें खरीदकर भी मां लक्ष्मी की पूजा कर प्रसन्न कर सकते हैं।

धनिया: धनतेरस के दिन धनिया खरीदकर लाना भी बहुत शुभकारी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि धनिया धन को बढ़ाता है। धनतेरस के दिन धनिया लाकर मां लक्ष्मी को अर्पित कर पूजा की जाती है. इसके कुछ दाने गमले में बो दें। अगर धनिया के पौधे निकलते है तो साल भर घर में सुख समृद्धि की वृद्धि होती है।

झाड़ू: झाड़ू को मां लक्ष्मी का रूप माना जाता है। मान्यता है कि धनतेरस के दिन झाड़ू लाने पर घर में मां लक्ष्मी का प्रवेश होता है। कहते हैं कि धनतेरस के दिन झाड़ू को लाना मां लक्ष्मी को घर लाने के समान है। झाड़ू से घर की गंदगी साफ़ की जाती है अर्थात इससे घर की सारी नकारात्मकता दूर करते हैं। इसका महत्त्व सोने चांदी के समान है।

अक्षत: धनतेरस के दिन घर पर अक्षत अर्थात धान या चावल लाना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि अन्नों में धान /चावल को सबसे शुभ माना गया है। अक्षत का अर्थ होता है धन-संपति में अनंत वृद्धि। शास्त्रों में बताया गया है कि धनतेरस के दिन धान या चावल खरीदकर लाने से धन, वैभव और ऐश्वर्य में अनंत वृद्धि होती है। धान या चावल खरीदकर लाना सोने को खरीदकर लाने के समान है।

जौ: पौराणिक कथा में कहा गया है। कि जौ कनक यानी सोना के समान होता है। धनतेरस के दिन जौ को खरीदकर लाना सोने को खरीद कर लाने के समान ही फल देता है। धनतेरस के दिन चावल खरीदकर लाना सबसे शुभ माना गया है।

Tuesday, October 20, 2020

हनुमान जी के बारह नाम, जिसके लेने मात्र से दूर हो जाते हैं सारे कष्ट।

ऐसे तो हनुमान जी के कई सारे नाम है जिसके लेने से भक्तो के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। जिसमे से प्रमुख नाम निम्न है। जिसको भक्त अपने जुबानों से कभी हटाने नहीं देना चाहते हैं।
जय श्री राम, जय बजरंगबली
आज के दिन ये नाम जपने से सब मंगल ही मंगल होगा। जानिए मंगल को जन्मे मंगलकारी हनुमान के अद्भुत और चमत्कारी बारह नामों के बारे में जिनके जाप से आपके सारे कष्ट, रोग, पीड़ा और संकट खुद ब खुद नष्ट हो जाते हैं और जीवन में सब मंगलमय होगा।
शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं हनुमान
अजर-अमर हैं हनुमान। अपने भक्तों पर कृपा करते हैं और उनके सारे कष्‍ट संकटमोचन हर लेते हैं। वह महावीर भी हैं और हर युग में अपने भक्तों की समस्याओं का समाधान करते हैं। माना जाता है कि हनुमान एक ऐसे देवता है जो थोड़ी-सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते है। मंगलवार और शनिवार हनुमान जी के पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ दिन हैं।

हर लेते हैं सारे संकट
हनुमान चालीसा में लिखा हुआ है कि संकट कटे मिटे सब पीरा जो सुमरे हनुमत बलवीरा। जी हां यह अटल सत्य है। भूत पिसाच निकट नहीं आवे महावीर जब नाम सुनावे। जी हां यह भी अटल सत्य है, जैसे- राम नाम की महिमा अपरम्‍पार मानी जाती है। ठीक वैसे ही श्री हनुमान के नाम की महिमा भी अनंत फलदायी मानी गई है। अगर आप अपनी परेशानियों से निजात पाना चाहते हैं तो जानिए कैसे करें महाबली को प्रसन्न।
जैसा कि रामचरित मानस में लिखा हुआ है कि कलयुग केवल नाम अधरा सुमरि-सुमरि नर उतरहीं पारा और यह भी माना जाता है कि कलयुग में हनुमान ही सबसे प्रभावशाली देवता हैं। उनका नाम सुमरने से ही आप सारे काम बन जाएंगे।

प्रभु श्री राम के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा से ही हनुमान जी को अष्टसिद्धियों और नवनिधियों का वरदान मिला है। ये वही अष्टसिद्धियां और नव निधियां हैं जो कलयुग में हनुमान उपासकों के कल्याण का काम करती हैं. कलयुग में राम भक्त हनुमान के द्वादश यानि बारह नामों का स्मरण किया जाये तो सारी तकलीफें, समस्याएं, व्याधियों को हर लेते हैं हनुमान। तो आइए जानें हनुमान जी के नामों की महिमा के बारे में।
1. हनुमान
2. अंजनीसुत
3. वायुपुत्र
4. महाबल
5. रामेष्ट
6. फाल्गुनसखा
7. पिंगाक्ष
8. अमितविक्रम
9. उदधिक्रमण
10. सीताशोकविनाशन
11. लक्षमणप्राणदाता और
12. दशग्रीवदर्पहा
महाबली बजरंग के इन नामों का उच्चारण करने से आपकी कई वर्षों से चली आ रही परेशानियां पल भर में दूर हो जाएंगी।

Saturday, September 19, 2020

दुनिया का इकलौता शुद्ध शाकाहारी मगरमच्छ।

मगरमच्छ पानी में रहने वाला एक खतरनाक जानवर जो एक इंसानी शरीर को बिना चबाए आराम से निगल सकता है। और जिसके शरीर के ऊपर की त्वचा इतनी सख्त होती है कि इस पर बंदूक की गोली का भी कोई असर नहीं होता है। लेकिन आज हम जिस मगरमच्छ के बारे में बात करने वाले हैं। वह दुनिया का इकलौता शुद्ध शाकाहारी मगरमच्छ है। यह जानकर आपको हैरानी जरूर होगी लेकिन यह एक सच है। केरल के कासरगोड जिले में स्थित है, भगवान विष्णु के अवतार श्री अनंत पदमनाभ स्वामी का मंदिर है। इसी मंदिर के किनारे बनी झील में रहता है, यह शाकाहारी मगरमच्छ जिसका नाम है “बबिया”

बबिया मगरमच्छ खाने में केवल मंदिर का बना प्रसाद ही खाता है इसके अलावा कुछ नहीं खाता इस झील में उसके साथ रहने वाली मछलियाँ उससे बिल्कुल भी भयभीत नहीं होती है। बल्कि आराम से उसके पास तैरती है बिना किसी डर के अनंत पदमनाभ स्वामी मंदिर तिरुवंतपुरम में श्री अनंत पदमनाभ स्वामी का एक बहुत विशाल एवं भव्य मंदिर है। लेकिन स्थानीय लोगों के अनुसार अनंतपुर में स्थित मंदिर ही श्री अनंत पदमनाभ स्वामी का मूल स्थान है। अनंतपुर में यह मंदिर करीब 2 एकड़ जगह में फैला हुआ है। इस मंदिर के पास में एक झील भी है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रभु अनंत पद्मनाभस्वामी इसी झील के अंदर स्थित एक गुफा से होकर तिरुवंतपुरम गए थे इसी वजह से दोनों जगहों का नाम एक जैसा ही है।

मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा।
मंदिर में पूजा करने वाले स्थानीय पुजारियों के अनुसार लगभग 3000 साल पहले दिवाकर मुनि विल्व  मंगलम स्वामी  अनंतपुर के इसी मंदिर मे रहा करते थे, एवं विष्णु भगवान की पूजा किया करते थे। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर एक दिन विष्णु भगवान स्वयं एक छोटे बालक के रूप में उनके सामने प्रकट हुए एवं उनके साथ इसी आश्रम में रहने लगे। धीरे धीरे यह बालक विल्व मंगलम स्वामी के साथ घुल मिल गया, एवं वह आश्रम की कार्यों में भी मुनि का हाथ बटाने लगा। समय बीतता गया और एक दिन जब विल्व मंगलम स्वामी अपने दैनिक पूजा का कार्य कर रहे थे। उस समय वह बालक उनके कार्य में विघ्न उत्पन्न कर रहा था। इस बात से परेशान होकर उन्होंने उस बालक को डाँटा और उसे पीछे की ओर धकेल दिया। मुनि के इस व्यवहार से आहत होकर वह बालक यह कहते हुए पास स्थित झील मे अदृश्य हो गया कि जब भी विल्व मंगलम स्वामी उनसे मिलना चाहे वे अनंतकट के जंगलों में उसे पाएंगे। जब तक मुनि को अपनी भूल का एहसास हुआ, कि जिस नन्हे बालक को उन्होंने डांटा है। वह स्वयं भगवान विष्णु का रूप है। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और वह बालक झील मे बनी गुफा मे अद्रश्य चुका था।

झील मे बनी गुफा।
विल्व मंगलम स्वामी स्वयं से हुई भूल का पश्चाताप करने के लिए एवं बालक से माफी मांगने के लिए उसी गुफा में प्रवेश करते हैं। और वे गुफा के दूसरी और समुद्र के पास में निकलते हैं। वहां पर वह देखते हैं कि समुद्र में स्वयं भगवान विष्णु विराजमान है। उनके चारों और विशाल नाग लिपटे हुए हैं।
बबिया मगरमच्छ के अस्तित्व का इतिहास।
स्थानीय पुजारियों के अनुसार बबिया मगरमच्छ उसी गुफा में रहता है। जहां पर भगवान श्री विष्णु के बाल अवतार श्री कृष्ण अदृश्य हुए थे। उनके अनुसार बबिया मगरमच्छ श्री कृष्ण के द्वार की पहरेदारी करता है।
बबिया के बारे में सबसे हैरान करने वाली बात यह है, कि यह शुद्ध शाकाहारी मगरमच्छ है। मंदिर के पुजारियों द्वारा इसे दिन में दो बार चावल का प्रसाद भोजन के रूप में दिया जाता है। मंदिर में पूजा करने वाले चंद्र प्रकाश जी के अनुसार वे पिछले 10 सालों से बबिया को भोजन करा रहे हैं वे कहते हैं कि वे प्रतिदिन 1 किलो चावल स्वयं अपने हाथों से बबिया को खिलाते हैं। और वह बिना उन पर आक्रमण किए या किसी अन्य मछलियों पर आक्रमण किए प्रसाद का भोजन करता है एवं अपनी गुफा में चला जाता है। बबिया पिछले 75 सालों से इसी झील में रह रहा है।

बबिया का इतिहास।
स्थानीय लोगों के अनुसार लगभग 75 साल पहले एक ब्रिटिश सैनिक ने बबिया से पहले इस गुफा की सुरक्षा कर रहे मगरमच्छ को मार दिया था। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही उसे सैनिक की रहस्यमयी तरीके से सांप के काटने के कारण मृत्यु हो गई। स्थानीय लोगों का मानना है, कि सर्प देवता ने उसे उसके अपराध की सजा दी है। 
पहले वाले मगरमच्छ की मृत्यु हो जाने के बाद बबिया मगरमच्छ उसकी जगह पर उस गुफा की पहरेदारी करने के लिए उपस्थित हो गया।
ऐसा हर बार होता है जब भी गुफा की सुरक्षा में लगा हुआ मगरमच्छ मृत्यु को प्राप्त होता है। उसकी जगह पर दूसरा मगरमच्छ अपने आप ही उसका स्थान ले लेता है। यह कहां से आते हैं कोई नहीं जानता। यहां पर ऐसी मान्यता है, कि अगर आप इस झील में बबिया मगरमच्छ को तैरता हुआ देख लेते हैं तो आपकी किस्मत बदल सकती है बबिया अच्छे भाग्य का प्रतीक माना जाता है।

Tuesday, September 8, 2020

मंगलवार को करे खास पूजा अर्चना मिलेगा बहुत लाभ।

मंगलवार और शनिवार बजरंगबली के दिन हैं। मान्यता है, कि मंगलवार को हनुमान जी का खास पूजन करने से बहुत लाभ होते हैं। सभी देवी और देवताओं में हनुमानजी ऐसे भगवान हैं जो थोड़ी से ही पूजा में जल्दी से प्रसन्न हो जाते हैं। बजरंगबली को संकटमोचक भी कहते हैं। शास्त्रों और पुराणों में हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए भक्तों को हनुमान जी प्रभु श्री राम के अनन्य भक्त हैं। भक्तों को प्रभु श्री राम के शरण में जाने मात्र से सभी संकट दूर हो जाते हैं। हनुमान जी के भक्तों पर सभी देवी देवताओं की भी विशेष कृपा रहती है।
वहीं कई लोग हनुमान जी की कृपा पाने के लिए मंदिर जाकर उनकी पूजा बड़े ही श्रद्धा भाव के साथ करते हैं।साथ ही घर के मंदिर में हनुमान जी मूर्ति और तस्वीर को रखते हैं, लेकिन क्या आप इस बात को जानते हैं कि भगवान के किस स्वरूप को घर में विराजित किया जाए और किसको नहीं। बजरंगबली के कुछ रूपों को घर पर नहीं रखना चाहिए इससे जीवन में अशांति बनी रहती है। आइए जानते हैं, हनुमान जी की कौन सी तस्वीरों को घर में रखना चाहिए और किसे नहीं रखना चाहिए।
कौन सी तस्वीरें घर पर लगाएं
* हनुमान जी की युवा अवस्था में पीले रंग के वस्त्र पहने हुए चित्र लगाना शुभ होता है।

* पढ़ाई वाले कमरे में हनुमान जी की लंगोट पहने वाली तस्वीर लगानी चाहिए। इससे पढ़ाई में मन एकाग्र होता है।

* जिस तस्वीर में हनुमान जी भगवान राम की सेवा कर रहें हों, उसको लगाने से घर में धन की वर्षा होती है।

* डाइनिंग रूम में राम दरबार का चित्र लगाना चाहिए, इससे परिवार में अपनापन और प्रेम बढ़ता है।

* घर के मुख्यद्वार पर पंचमुखी हनुमान जी की प्रतिमा या चित्र लगाना चाहिए। इससे घर में कोई भी नकारात्मक शक्ति प्रवेश नहीं करती और घर- परिवार के सदस्यों पर कोई संकट नहीं आता है।

* हनुमान जी का बैठी मुद्रा वाली तस्वीर घर पर लगाने से सभी तरह के कलेश मिट जाते हैं।
कौन सी तस्वीरें घर पर न लगाएं
* घर पर हनुमान जी की ऐसी तस्वीर या मूर्ति को कभी भी नहीं रखना चाहिए जिसमें उन्होंने अपनी छाती को चीर रखा हो।

* जिस तस्वीर में हनुमान जी संजीवनी लिए हुए आकाश में उड़ रहें है ऐसी तस्वीर को घर में नहीं लगाना चाहिए।शास्त्रों में कहा गया कि हनुमान जी के मूर्ति की पूजा हमेशा स्थिर अवस्था में ही करनी चाहिए।

* राक्षसों का संहार करते हुए हनुमान जी की तस्वीरों को घर में नहीं लगाना चाहिए।

* ऐसी तस्वीर जिसमें हनुमान जी ने अपने कंधों पर भगवान राम और लक्ष्मण को बैठा रखा हो उस तस्वीर को नहीं लगाना चाहिए।

* हनुमान जी द्वारा लंका दहन की तस्वीर को घर में नहीं लगाना चाहिए। ऐसी तस्वीरों से जीवन में सुख और समृद्धि की कमी रहती है।

* वैवाहिक लोगों को अपने बेडरूम में हनुमान जी को किसी भी रूप में स्थापित नहीं करना चाहिए।

Friday, September 4, 2020

जाने जनेऊ क्यों कराया जाता हैं। क्या जनेऊ के लिए ब्राम्हण होना अनिवार्य है। Part 1

जनेऊ का नाम सुनते ही सबसे पहले जो चीज़ मन मे आती है वो है धागा दूसरी चीज है ब्राम्हण। जनेऊ का संबंध क्या सिर्फ ब्राम्हण से है , ये जनेऊ पहनाए क्यों जाते है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के 24 संस्कार होता है। (आप सभी को 16 संस्कार पता होंगे लेकिन वो प्रधान संस्कार है। 8 उप संस्कार होता है।) उनमें से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनई जाती है। जिसे ‘यज्ञोपवीतधारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है "सन्निकट ले जाना" और उपनयन संस्कार का अर्थ है "ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना"
हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है। परंतु उसको कुछ नियमों का पालन करना होता है। ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता था। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। मतलब सीधा है जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था। और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था (वर्ण व्यवस्था)। लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

जनेऊ का आध्यात्मिक महत्व
जनेऊ में तीन-सूत्र:- त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक। देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक।सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है, हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है, जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।
जनेऊ की लंबाई:- जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।
जनेऊ पहनने का नियम:- 
"जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिये"
मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए। और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी होता है।
मतलब साफ है कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है। इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है।

Thursday, September 3, 2020

अगर भीष्म पितामह के दिए उपदेश का पालन करें तो जीवन में आने वाले दुखो से बच सकते हैं।

महाभारत युद्ध अधर्म पर धर्म की लड़ाई थी। जो कौरव और पांडवों के बीच हुई थी। जिसमें कौरवों ने हर कदम पर छल और अधर्म का साथ लिया। वहीं, पांडवों ने धर्म के साथ आगे बढ़ते हुए इस युद्ध पर विजय प्राप्त किया।
महाभारत के शांति पर्व में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि पितामह जीवन में कभी-कभी हमारे सामने ऐसी परिस्थितियां बन जाती हैं, जिसमें हम समझ नहीं पाते हैं कि क्या करें और क्या न करें। कभी-कभी गुरु द्वारा बताए गए ज्ञान के अनुसार कोई काम करना जरूरी होता है, लेकिन उसमें हिंसा होने की वजह से हमें अनुचित लगता है। पितामह, ऐसे अवसर पर हमें वह काम तुरंत करना चाहिए या उसके संबंध में विचार करना चाहिए।

भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को गौतम ऋषि और उनके पुत्र चिरकारी की कथा सुनाई। भीष्म ने कहा कि चिरकारी हर काम हर काम सोच-समझकर देरी से करता था। एक दिन गौतम ऋषि अपनी पत्नी से क्रोधित हो गए और चिरकारी से कहा अपनी मां का वध कर दो। ऐसा बोलकर गौतम ऋषि वहां चले गए। चिरकारी सोचने लगा कि माता का वध करूं या नहीं। माता-पिता के बारे में धर्म के अनुसार विचार करने लगा। बहुत समय तक उसने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया। जब गौतम ऋषि लौटकर आए तो उन्हें दुख हो रहा था कि उन्होंने पत्नी को मारने का आदेश देकर गलती कर दी। जब घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि चिरकारी की माता जीवित थी। ये देखकर गौतम ऋषि प्रसन्न हो गए।
भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि:-
रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि।
अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते।।

ये महाभारत के शांति पर्व के 266वें अध्याय का 70वां श्लोक है। इसमें भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि हमें राग यानी मोह बढ़ाने में, अत्यधिक जोश दिखाने में देरी करना चाहिए। घमंड दिखाने में, लड़ाई करने में, कोई पाप करने में, किसी का बुरा करने में जितनी ज्यादा हो सके, उतनी देरी करनी चाहिए। इस नीति का ध्यान रखने पर हम कई समस्याओं से बच सकते हैं।

पितृ दोष से मुक्ति पाने का सबसे सही समय होता है, "पितृपक्ष" ।

पितृ दोष से मुक्ति पाने का सबसे सही समय होता है पितृपक्ष। इस दौरान किए गए श्राद्ध कर्म और दान-तर्पण से पित्रो को तृप्ति मिलती है। वे खुश होकर अपने वंशजों को सुखी और संपन्न जीवन का आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करने की परंपरा हमारी सांस्कृतिक विरासत में सदियों से चली आ रही है। धर्मशास्त्रों में श्राद्धों के विषय में विस्तार से बताया गया है। कहा गया है, कि पितरों का श्राद्ध करने वाले को समृद्धि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। श्राद्ध के लिए अपराह्न व्यापिनी तिथि ली जाती है। मृतक का अग्नि संस्कार करने वाले दिन श्राद्ध नहीं किया जाता।

धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पितरों के पूजन करने वाले को दीर्घायु, सुयोग्य पुत्र, यश, स्वर्ग, ताकत, लक्ष्मी, गाय आदि पशु सब प्रकार के सुख और धन धान्य की प्राप्ति होती है। प्राचीन भारतीय चिंतन परम्परा के अनु सार मनुष्यों को अपने जीवन में तीन प्रकार के ऋण उतारने होते हैं। ये तीन ऋण हैं। देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध करने से उपासक के तीनों ऋण उतर जाते हैं। श्राद्धों में बहुत लोगों को इसकी जानकारी नहीं होती है कि किस दिन किसका श्राद्ध करना चाहिए।

धर्मशास्त्रों में स्पष्ट रूप से श्राद्ध के नियम दिए गए हैं। इनके अंतर्गत कहा गया है कि जिस पिता की मृत्यु जिस दिन हुई हो उसी दिन उसका श्राद्ध किया जाना चाहिए। दिन का अर्थ वार से नहीं बल्कि देसी तिथियों प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि से लिया जाना चाहिए। यदि मृत्यु प्रतिपदा के दिन हुई हो तो उनका श्राद्ध पहले दिन यानी प्रतिपदा पर ही करना चाहिये। लेकिन पिता के श्राद्ध के लिए अष्टमी को और माता के श्राद्ध के लिए नवमी तिथि को श्रेष्ठ माना गया है। श्राद्ध पक्ष के पहले दिन प्रतिपदा के श्राद्ध का विधान है। इस दिन उन्हीं का श्राद्ध ही किया जाता है, जिनकी मृत्यु प्रतिपदा के दिन हुई हो।

परिवार में कुछ ऐसे भी पितर होते हैं जिनकी अकाल या अस्वाभाविक रूप से मृत्यु हो जाती है, ऐसे पितरों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है। जिन पितरों की मृत्यु की तिथि ज्ञात न हो उनका श्राद्ध अमावस के दिन किया जाना चाहिए। श्राद्धों में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। श्राद्ध करने के अपने नियम होते हैं। श्राद्ध पक्ष हिंदी कैलेंडर के अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष में आता है। जिस तिथि में जिस परिजन की मृत्यु हुई हो, उसी तिथि में उनका श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध कर्म पूर्ण विश्वास, श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाना चाहिए। पितृों तक केवल हमारा दान ही नहीं बल्कि हमारे भाव भी पहुंचते हैं।

जिन लोगों की मृत्यु के दिन की सही-सही जानकारी न हो, उनका श्राद्ध अमावस्या तिथि को करना चाहिए। सांप काटने से मृत्यु और बीमारी में या अकाल मृत्यु होने पर भी अमावस्या तिथि को श्राद्ध किया जाता है। जिनकी आग से मृत्यु हुई हो या जिनका अंतिम संस्कार न किया जा सका हो, उनका श्राद्ध भी अमावस्या को करते हैं।

मैं तो इंसानियत से मजबूर था तुम्हे बीच मे नही डुबोया" मगर तुमने मुझे क्यों काट लिया!

नदी में बाढ़ आती है छोटे से टापू में पानी भर जाता है वहां रहने वाला सीधा साधा1चूहा कछुवे  से कहता है मित्र  "क्या तुम मुझे नदी पार करा ...