Popular Posts

Showing posts with label भारत का इतिहास. Show all posts
Showing posts with label भारत का इतिहास. Show all posts

Thursday, September 3, 2020

जाने डॉ. भीमराव अम्बेडकर की कुछ सच्चाई जो मीडिया नहीं बताया।

आज हम आपको बताने जा रहे है डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की कुछ सच्चाइयां। जो आज तक कोई पत्रकार ने सामने लाने की कोशिश नहीं की ओर ना ही सामने अा पाया। और आम जनता वही जान पाई जो उससमय कि सरकार और बुद्धिजीवियों ने बताना चाहा।

1 मिथक:- अंबेडकर बहुत मेधावी थे।
सच्चाई:- अंबेडकर ने अपनी सारी शैक्षणिक डिग्रीयां तीसरी श्रेणी में पास की।

2 मिथक:- अंबेडकर बहुत गरीब थे।
सच्चाई:- जिस जमाने में लोग फोटो नहीं खींचा पाते थे उस जमाने में अंबेडकर की बचपन की बहुत सी फोटो है वह भी कोट पैंट में।

3 मिथक:- अंबेडकर ने शूद्रों को पढ़ने का अधिकार दिया।
सच्चाई:- अंबेडकर के पिता जी खुद उस ज़माने में आर्मी में सूबेदार मेजर थे।

4 मिथक:- अंबेडकर को पढ़ने नहीं दिया गया।
सच्चाई:- उस जमाने में अंबेडकर को गुजरात बढ़ोदरा के क्षत्रिय राजा सीयाजी गायकवाड़ ने स्कॉलरशिप दी और विदेश पढ़ने तक भेजा और ब्राह्मण गुरु जी ने अपना नाम अंबेडकर दिया।

5 मिथक:- अंबेडकर ने नारियों को पढ़ने का अधिकार दिया।
सच्चाई:- अंबेडकर के समय ही 20 पढ़ी लिखी औरतों ने संविधान लिखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
6 मिथक:- अंबेडकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।
सच्चाई:- अंबेडकर ने सदैव अंग्रेजों का साथ दिया भारत छोड़ो आंदोलन की जम कर खिलाफत की अंग्रेजो को पत्र लिखकर बोला कि आप और दिन तक देश में राज करिए उन्होंने जीवन भर हर जगह आजादी की लड़ाई का विरोध किया।

7 मिथक:- अम्बेडकर बड़े शक्तिशाली थे।
सच्चाई:- 1946 के चुनाव में पूरे भारत भर में अंबेडकर की पार्टी की जमानत जप्त हुई थी।

8 मिथक:- अंबेडकर ने अकेले आरक्षण दिया।
सच्चाई:- आरक्षण संविधान सभा ने दिया जिसमे कुल 389 लोग थे अंबेडकर का उसमें सिर्फ एक वोट था आरक्षण सब के वोट से दिया गया था।

9 मिथक:- अंबेडकर बहुत विद्वान था।
सच्चाई:- अंबेडकर संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। स्थाई समीति के अध्यक्ष परम् विद्वान डाक्टर राजेंद्र प्रसाद जी थे।

10 मिथक:- अंबेडकर राष्ट्रवादी थे।
सच्चाई:- 1931मे गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी भारत के टुकड़े करने की बात कर दलितों के लिए अलग दलिस्तान की मांग की थी।
11 मिथक:- अंबेडकर ने भारत का संविधान लिखा।
सच्चाई:- जो संविधान अंग्रेजों के1935 के मैग्नाकार्टा से लिया गया हो और विश्व के 12 देशों से चुराया गया है उसे आप मौलिक संविधान कैसें कह सकते है? अभी भी सोसायटी एक्ट में 1860 लिखा जाता है।

12 मिथक:- आरक्षण को लेकर संविधान सभा के सभी सदस्य सहमत थे।
सच्चाई:- इसी आरक्षण को लेकर सरदार पटेल से अंबेडकर की कहा सुनी हो गई थी। पटेल जी संविधान सभा की मीटिंग छोड़कर बाहर चले गये थे बाद में नेहरू के कहने पर पटेल जी वापस आये थे। सरदार पटेल ने कहा कि जिस भारत को अखण्ड भारत बनाने के लिए भारतीय देशी राजाओं, महराजाओं, रियासतदारों, तालुकेदारों ने अपनी 546 रियासतों को भारत में विलय कर दिया जिसमें 513 रियासतें क्षत्रिय राजाओं की थी।इस आरक्षण के विष से भारत भविष्य में खण्डित होने के कगार पर पहुंच जाएगा।

13 मिथक:- अंबेडकर स्वेदशी थे।
सच्चाई:- देश के सभी नेताओं का तत्कालीन पहनावा भारतीय पोशाक धोती -कुर्ता, पैजामा-कुर्ता, सदरी व टोपी,पगड़ी, साफा, आदि हुआ करता था।गांधी जी ने विदेशी पहनावा व वस्तुओं की होली जलवाई थी। यद्यपि कि नेहरू, गाधीं व अन्य नेता विदेशी विश्वविद्यालय व विदेशों में रहे भी थे फिर भी स्वदेशी आंदोलन से जुड़े रहे। अंबेडकर की कोई भी तस्वीर भारतीय पहनावा में नही है। अंबेडकर अंग्रेजिएत का हिमायती थे।
अंत में कहना चाहता हूं कि अंग्रेज जब भारत छोड़ कर जा रहे थे तो अपने नापाक इरादों को जिससे भविष्य में भारत खंडित हो सके के रुप में अंग्रेजियत शख्सियत अंबेडकर की खोज कर लिए थे।



मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाना नही बल्कि सच्चाई बयां करने की कोशिश करना है। तथ्यों की जानकारी आप स्वयं भी प्राप्त कर सकते है।

Tuesday, July 21, 2020

बाबरी मस्जिद का विध्वंस के बाद राम मंदिर निर्माण का कोर्ट में लगातार सुनवाई। Part 02

28 साल पहले अयोध्या के हनुमान गढ़ी जा रहे कारसेवकों पे गोलियां चलाई गईं थीं। उत्तर प्रदेश में तब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। हिंदू साधु-संतों ने अयोध्या कूच कर रहे थे। उन दिनों श्रद्धालुओं की भारी भीड़ अयोध्या पहुंचने लगी थी। प्रशासन ने अयोध्या में कर्फ्यू लगा रखा था, इसके चलते श्रद्धालुओं के प्रवेश नहीं दिया जा रहा था। पुलिस ने बाबरी मस्जिद के 1.5 किलोमीटर के दायरे में बैरिकेडिंग कर रखी थी। कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई थी। पहली बार 30 अक्टबूर, 1990 को कारसेवकों पर चली गोलियों में 5 लोगों की मौत हुई थीं। इस घटना के बाद अयोध्या से लेकर देश का माहौल पूरी तरह से गर्म हो गया था। इस गोलीकांड के दो दिनों बाद ही 2 नवंबर को हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी के करीब पहुंच गए, जो बाबरी मस्जिक के बिल्कुल करीब था। 
उमा भारती, अशोक सिंघल, स्वामी वामदेवी जैसे बड़े हिन्दूवादी नेता हनुमान गढ़ी में कारसेवकों का नेतृत्व कर रहे थे। ये तीनों नेता अलग-अलग दिशाओं से करीब 5-5 हजार कारसेवकों के साथ हनुमान गढ़ी की ओर बढ़ रहे थे। प्रशासन उन्हें रोकने की कोशिश कर रहा था, लेकिन 30 अक्टूबर को मारे गए कारसेवकों के चलते लोग गुस्से से भरे थे। आसपास के घरों की छतों तक पर बंदूकधारी पुलिसकर्मी तैनात थे और किसी को भी बाबरी मस्जिद तक जाने की इजाजत नहीं थी। 2 नवंबर को सुबह का वक्त था अयोध्या के हनुमान गढ़ी के सामने लाल कोठी के सकरी गली में कारसेवक बढ़े चले आ रहे थे। पुलिस ने सामने से आ रहे कारसेवकों पर फायरिंग कर दी, जिसमें करीब ढेड़ दर्जन लोगों की मौत हो गई। ये सरकारी आंकड़ा है। इस दौरान ही कोलकाता से आए कोठारी बंधुओं रामकुमार कोठारी और सरद कोठारी की भी मौत हुई थी। कारसेवकों ने अयोध्या में मारे गए कारसेवकों के शवों के साथ प्रदर्शन भी किया।आखिरकार 4 नवंबर को कारसेवकों का अंतिम संस्कार किया गया और उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी राख को देश के अलग-अलग हिस्सों में ले जाया गया था। अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले मुलायम सिंह यादव ने कई साल बाद आजतक से बात करते हुए कहा था कि उस समय मेरे सामने मंदिर-मस्जिद और देश की एकता का सवाल था। बीजेपी वालों ने अयोध्या में 11 लाख की भीड़ कारसेवा के नाम पर लाकर खड़ी कर दी थी। देश की एकता के लिए मुझे गोली चलवानी पड़ी। हालांकि, मुझे इसका अफसोस है, लेकिन और कोई विकल्प नहीं था। इस घटना के दो साल बाद 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचे को गिरा दिया गया था। 

चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की विशेष बेंच चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नज़ीर पहुंचे। पांच जजों ने लिफाफे में बंद फैसले की कॉपी पर दस्तखत किए और इसके बाद जस्टिस गोगोई ने फैसला सुनाया।फैसले में ASI (भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण) का हवाला देते हुए कहा गया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी खाली जगह पर नहीं किया गया था. विवादित जमीन के नीचे एक ढांचा था और यह इस्लामिक ढांचा नहीं था. कोर्ट ने कहा कि पुरातत्व विभाग की खोज को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि, कोर्ट ने ASI रिपोर्ट के आधार पर अपने फैसले में ये भी कहा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की भी पुख्ता जानकारी नहीं है. लेकिन इससे आगे कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पक्ष विवादित जमीन पर दावा साबित करने में नाकाम रहा है। पूरी विवादित जमीन को मंदिर बनाने के लिए दिये जाने और मुसलमानों को दूसरी जगह पांच एकड़ जमीन मस्जिद के लिए देने का फैसला सुनाया है। 


बनेगा भब्य राम मंदिर अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन की तिथि अब निर्धारित हो चुकी है। इससे प्रयागराज में भी संत समाज उत्साहित है। कई सालों तक राम मंदिर के लिए आंदोलन चलाने वाले संगठन, विश्व हिंदू परिषद से जुड़े कार्यकर्ता भूमि पूजन की तिथि 5 अगस्त को एक अलग अंदाज में मनाने की तैयारी में लग गए हैं। राम मंदिर के भूमि पूजन में तीर्थराज संगम का जल और मिटटी भी इस्तेमाल होगी। 5 अगस्त को अयोध्या में भगवान् श्री राम मंदिर के लिए भूमि पूजन का कार्यक्रम तय कर लिया गया है, राम मंदिर ट्रस्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निमंत्रण भेजा था और 3 अगस्त तथा 5 अगस्त की तारीख बताई थी, प्रधानमंत्री ने 5 अगस्त की तारीख को पसंद किया, इसी 5 अगस्त को साल 2019 में धारा 370 को भी ख़त्म किया गया था। रिपोर्टों के मुताबिक भूमि पूजन के दौरान श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास लगभग 40 किलो चॉंदी की श्रीराम शिला समर्पित करेंगे। पीएम मोदी इस शिला का पूजन कर स्थापित करेंगे।


राम मंदिर को कब और कैसे बाबरी मस्जिद में बदला गया! वास्तविक इतिहास को हिन्दूओ से दूर रखा गया। Part 01

अयोध्या को भगवान श्रीराम के पूर्वज विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु ने बसाया था, तभी से इस नगरी पर सूर्यवंशी राजाओं का राज महाभारतकाल तक रहा। यहीं पर प्रभु श्रीराम का दशरथ के महल में जन्म हुआ था। महर्षि वाल्मीकि ने भी रामायण में जन्मभूमि की शोभा एवं महत्ता की तुलना दूसरे इन्द्रलोक से की है। धन-धान्य व रत्नों से भरी हुई अयोध्या नगरी की अतुलनीय छटा एवं गगनचुंबी इमारतों के अयोध्या नगरी में होने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में मिलता है। कहते हैं, कि भगवान श्रीराम के जल समाधि लेने के पश्चात अयोध्या कुछ काल के लिए उजाड़-सी गई थी, लेकिन उनकी जन्मभूमि पर बना महल वैसे का वैसा ही था। भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुन: राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया। इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक इसका अस्तित्व आखिरी राजा, महाराजा बृहद्बल तक अपने चरम पर रहा। कौशलराज बृहद्बल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के हाथों हुई थी। महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़-सी हो गई, मगर श्रीराम जन्मभूमि का अस्तित्व फिर भी बना रहा।
ईसा के लगभग 100 वर्ष पूर्व उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य एक दिन आखेट करते-करते अयोध्या पहुंच गए। थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के वृक्ष के नीचे वे अपनी सेना सहित आराम करने लगे। उस समय यहां घना जंगल हो चला था। कोई बसावट भी यहां नहीं थी। महाराज विक्रमादित्य को इस भूमि में कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे। तब उन्होंने खोज आरंभ की और पास के योगी व संतों की कृपा से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह श्रीराम की अवध भूमि है। उन संतों के निर्देश से सम्राट ने यहां एक भव्य मंदिर के साथ ही कूप, सरोवर, महल आदि बनवाए। कहते हैं कि उन्होंने श्रीराम जन्मभूमि पर काले रंग के कसौटी पत्थर वाले 84 स्तंभों पर विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर की भव्यता देखते ही बनती थी। विक्रमादित्य के बाद के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर की देख-रेख की। उन्हीं में से एक शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग ने भी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के किए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय और तत्पश्चात काफी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश में कई बार उल्लेख किया है।
 
इतिहासकारों के अनुसार 600 ईसा पूर्व अयोध्या में एक महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र था। इस स्थान को अंतरराष्ट्रीय पहचान 5 वीं शताब्दी में ईसा पूर्व के दौरान तब मिली जबकि यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रूप में विकसित हुआ। तब इसका नाम साकेत था। कहते हैं कि चीनी भिक्षु फा-हियान ने यहां देखा कि कई बौद्ध मठों का रिकॉर्ड रखा गया है। यहां पर 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री हेनत्सांग आया था। उसके अनुसार यहां 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3,000 भिक्षु रहते थे और यहां हिन्दुओं का एक प्रमुख और भव्य मंदिर भी था, जहां रोज हजारों की संख्या में लोग दर्शन करने आते थे।
पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया। इसके बाद भारतवर्ष पर आक्रांताओं का आक्रमण और बढ़ गया। आक्रमणकारियों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या में भी लूटपाट की और पुजारियों की हत्या कर मूर्तियां तोड़ने का क्रम जारी रखा। लेकिन 14वीं सदी तक वे अयोध्या में राम मंदिर को तोड़ने में सफल नहीं हो पाए।
 विभिन्न आक्रमणों के बाद भी सभी झंझावातों को झेलते हुए श्रीराम की जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर 14 वीं शताब्दी तक बचा रहा। कहते हैं कि सिकंदर लोदी के शासनकाल के दौरान यहां मंदिर मौजूद था। 14वीं शताब्दी में हिन्दुस्तान पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही राम जन्मभूमि एवं अयोध्या को नष्ट करने के लिए कई अभियान चलाए गए। अंतत: 1527-28 में इस भव्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसकी जगह बाबरी ढांचा खड़ा किया गया। कहते हैं, कि मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन और भव्य मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी, जो 1992 तक विद्यमान रही।
 बाबरनामा के अनुसार 1528 में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था। अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशों से इसका संकेत भी मिलता है। इसमें एक खासतौर से उल्लेखनीय है। इसका सार है, 'जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं, ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल रूप दिया।हालांकि यह भी कहा जाता है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में हिन्दुओं को यह भूमि एक चबूतरे के रूप से सौंप दी गई थी लेकिन क्रूर शासक औरंगजेब ने अपने पूर्वज बाबर के सपने को पूरा करते हुए यहां भव्य मस्जिद का निर्माण कर उसका नाम बाबरी मस्जिद रख दिया था।

Saturday, July 11, 2020

सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के लिए डा. राजेंद्र प्रसाद को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।

सोमनाथ मंदिर के लिए डा. राजेंद्र प्रसाद को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, ये जगजाहिर है कि जवाहर  लाल नेहरू सोमनाथ मंदिर के पक्ष में नहीं थे, महात्मा गांधी जी की सहमति से सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का काम शुरु किया था। पटेल की मौत के बाद मंदिर की जिम्मेदारी के एम मुंशी पर आ गई। मुंशी नेहरू की कैबिनेट के मंत्री थे। गांधी और पटेल की मौत के बाद नेहरू का विरोध और तीखा होने लगा था। एक मीटिंग में तो उन्होंने मुंशी की फटकार भी लगाई थी। उन पर हिंदू-रिवाइवलिज्म और हिंदुत्व को हवा देने का आरोप भी लगा दिया। लेकिन, मुंशी ने साफ साफ कह दिया था कि सरदार पटेल के काम को अधूरा नहीं छोड़ेगे।
के एम मुंशी भी गुजराती थे, इसलिए उन्होंने सोमनाथ मंदिर बनवा के ही दम लिया। फिर उन्होंने मंदिर के उद्घाटन के लिए देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को न्यौता दे दिया। उन्होंने इस न्यौते को बड़े गर्व से स्वीकार किया लेकिन जब जवाहर लाल नेहरू की इसका पता चला तो वे नाराज हो गए। उन्होंने पत्र लिख कर डा. राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ जाने से मना कर दिया। राजेंद्र बाबू भी तन गए। नेहरू की बातों को दरकिनार कर वो सोमनाथ गए और जबरदस्त भाषण दिया था। जवाहर लाल नेहरू को इससे जबरदस्त झटका लगा। उनके इगो को ठेंस पहुंची। उन्होंने इसे अपनी हार मान ली। डा. राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ जाना बड़ा महंगा पड़ा क्योंकि इसके बाद नेहरू ने जो इनके साथ सलूक किया वो हैरान करने वाला है।
सोमनाथ मंदिर की वजह से डा. राजेंद्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू के रिश्ते में इतनी कड़वाहट आ गई कि जब राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति पद से मुक्त हुए तो नेहरू ने उन्हें दिल्ली में घर तक नहीं दिया। राजेंद्र बाबू दिल्ली में रह कर किताबें लिखना चाहते थे। लेकिन, नेहरू ने उनके साथ अन्याय किया। एक पूर्व राष्ट्रपति को सम्मान मिलना चाहिए, उनका जो अधिकार था उससे उन्हें वंचित कर दिया गया. आखिरकार, डा. राजेंद्र प्रसाद को पटना लौटना पड़ा. पटना में भी उनके पास अपना मकान नहीं था। पैसे नहीं थे। नेहरू ने पटना में भी उन्हें कोई घर नहीं दिया जबकि वहां सरकारी बंगलो और घरों की भरमार है।
डा. राजेंद्र प्रसाद आखिरकार पटना के सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में रहने लगे। न कोई देखभाल करने वाला और न ही डाक्टर। उनकी तबीयत खराब होने लगी। उन्हें दमा की बीमारी ने जकड़ लिया। दिन भर वो खांसते रहते थे। अब एक पूर्व राष्ट्रपति की ये भी तो दुविधा होती है कि वो मदद के लिए गिरगिरा भी नहीं सकता। लेकिन, राजेंद्र बाबू के पटना आने के बाद नेहरू ने कभी ये सुध लेने की कोशिश भी नहीं कि देश का पहला राष्ट्रपति किस हाल में जी रहा है?
 
इतना ही नहीं, जब डा. राजेंद्र प्रसाद की तबीयत खराब रहने लगी, तब भी किसी ने ये जहमत नहीं उठाई कि उनका अच्छा इलाज करा सके। बिहार में उस दौरान कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। आखिर तक डा. राजेन्द्र बाबू को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा। मानो ये किसी के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी. उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी। उसे भी दिल्ली भेज दिया गया। यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया।
एक बार जय प्रकाश नारायण उनसे मिलने सदाकत आश्रम पहुंचे। वो देखना चाहते थे कि देश पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष आखिर रहते कैसे हैं। जेपी ने जब उनकी हालत देखी तो उनका दिमाग सन्न रह गया। आंखें नम हो गईं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वो क्या कहें। जेपी ने फौरन अपने सहयोगियों से कहकर रहने लायक बनवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई. 
डा. राजेंद्र प्रसाद की मौत के बाद भी नेहरू का कलेजा नहीं पसीजा। उनकी बेरुखी खत्म नहीं हुई। नेहरू ने उनकी अंत्येष्टि में शामिल तक नहीं हुए। जिस दिन उनकी आखरी यात्रा थी उस दिन नेहरू जयपुर चले गए।इतना ही नहीं, राजस्थान के राज्यपाल डां. संपूर्णानंद पटना जाना चाह रहे थे, लेकिन नेहरू ने उन्हें वहां जाने से मना कर दिया। जब नेहरु को मालूम चला कि संपूर्णानंद जी पटना जाना चाहते हैं, तो उन्होंने संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। 
यही नहीं, नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दी। लेकिन, राधाकृष्णन ने नेहरू की बात नहीं मानी और वो राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। जब भी दिल्ली के राजघाट से गुजरता हूं तो डा. राजेंद्र प्रसाद के साथ नेहरू के रवैये को याद करता हूं। अजीब देश है, महात्मा गांधी के बगल में संजय गांधी को जगह मिल सकती है लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति के लिए इस देश में कोई इज्जत ही नहीं है। ऐसा लगता है कि इस देश में महानता और बलिदान की कॉपी राइट सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार के पास है।

आइए जानें, नवाबों का शहर लखनऊ में क्या है खास।

पहले लखनऊ को ‘नवाबों के शहर’ के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इस शहर का इतिहास इस शहर को सबसे अलग बनाता है। यहां का रहन सहन, खाना-पानी, तौर तरीके, भाषा, इमारतें-पार्क, पहनावा आदि। सब कुछ में राजसी जीवन की झलक दिखाई देती है। यहां की बोली की मिठास, मिठाई से ज्यादा मीठी हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश का जिला और उत्तर प्रदेश की राजधानी ‘लखनऊ’ इस शहर को खास बनाता है। अगर आप भी लखनऊ घूमने की चाहत रखते है, तो इस शहर की नवाबी झलक को इन इमारतों में देख सकते हैं।

बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ में भूलभुलैया नाम से भी मशहूर बड़े इमामबाड़े का निर्माण नवाब आसिफ उद्दौला ने करवाया था। लखनऊ के इस प्रसिद्ध इमामबाड़े का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है। ये इमामबाड़ा एक नवाब के परोपकारी कदम का प्रतीक है जो अपनी प्रजा के हित को ध्‍यान में रख कर उठाया गया था। साल 1784 में नवाब ने अकाल राहत परियोजना के अन्तर्गत इसे बनवाया बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है। मस्जिद परिसर के आंगन में दो ऊंची मीनारें हैं।इमामबाड़े की इमारत एक विशाल गुम्बदनुमा हॉल की तरह है, जो 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। एक अनुमान के अनुसार इसे बनाने में उस दौर में पांच से दस लाख रुपए का खर्च हुआ था। कहा तो ये भी जाता है कि इस इमारत के पूरा होने के बाद भी नवाब इसकी साज सज्जा पर चार से पांच लाख रुपए सालाना खर्च करते थे। इमामबाड़े के परिसर में एक अस़फी मस्जिद भी है, जहां मुस्लिम समाज के लोग ही जा सकते हैं। मस्जिद के आंगन में दो ऊंची मीनारें हैं।


इमामबाड़े से जुड़ी कहानियां इस इमामबाड़े से कई कहानिया भी जुड़ी हुई हैं। कहते हैं कि इस इमामबाड़े के अंदर अंडरग्राउंड कई रास्‍ते हैं। इनमें से एक गोमती नदी के तट पर खुलता है तो एक फैजाबाद तक जाता है। वहीं कुछ रास्‍ते इलाहाबाद और दिल्‍ली तक भी पहुंचते थे। ये भी कहा गया कि ये रास्‍ते वाकई अब भी मौजूद है पर दुर्घटनाओं के डर से उन्‍हें सील कर दिया गया है ताकि कोई उनके भीतर ना जा सके।


मोती महल लखनऊ में गोमती नदी के किनारे पर बना मोती महल। इसकी तीन इमारतें इस महल को खास बनाती हैं। इसे सआदत अली खां ने बनवाया था। मुबारक मंजिल और शाह मंजिल अन्य दो इमारतें हैं। बालकनी से जानवरों की लड़ाई और उड़ते पक्षियों को देखने हेतु नवाबों के लिए इन इमारतों को बनवाया गया था। राणा प्रताप मार्ग पर स्थित मोती महल में मुहब्बत और जंग की कहानी है। इसे यूं ही मोती महल नहीं कहते हैं। दरअसल 18वीं सदी में नवाब सआदत अली खां ने गोमती नदी के दायें किनारे पर एक आलीशान महल बनवाया था। इसके गुंबद की सूरत और चमक मोती जैसी थी इसलिए यह मोती महल कहलाया। इससे जुड़ी एक और कहानी भी है। जिसके अनुसार उनकी पत्नी मोती बेगम इसमें रहती थीं। पहले बेगम का नाम टाट महल था जिसे नवाब ने बदल दिया था। आसफुद्दौला के बनवाए शीशमहल की स्पर्धा में मोती महल की नींव पड़ी थी। नवाब की कई शादियां बनारस में हो चुकी थीं। उन सब में सआदत अली खां को टाट महल बेहद अजीज थीं। सआदत अली खां ने मोती महल इन्हीं के लिए बनवाया था। मोतीमहल में रहने से पहले टाट महल दौलत सराय में रहती थीं। उन्हें मोती के जेवरों के प्रति विशेष आकर्षण था। इस कारण बेगम के लिए नवाब ने मोतीमहल के गुंबद पर सीप की चमक से मोती की आब पैदा कर दी थी। 1866 में मिस्टर ब्रूस इंजीनियर के नक्शे पर मोती महल बनवाया गया था, जो अब तोड़ा जा चुका है। इस पुल के किनारे के सब घाट मोती महल घाट नाम से मशहूर हैं। इन घाटों के पूरब में एक महल की मरम्मत करवा कर जैकसन साहब बैरिस्टर रहा करते थे। अब उस महल को राजा ओयल ने ले लिया है। इसके सामने की ग्राउंड, मोती महल ग्राउंड कहलाती थी जहां अब स्टेडियम बन चुका है।

मौजूदा समय में स्थिति अब मोती महल में मोतीलाल नेहरू मेमोरियल सोसाइटी, भारत सेवा संस्थान, शिक्षा समिति और उप्र बाल कल्याण परिषद आदि के कार्यालय खुल गए हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त की समाधि भी इसी क्षेत्र में बनी है।

हजरतगंज मार्केट हजरतगंज मार्केट, लखनऊ का केंद्र है, जो शहर के परिवर्तन चौक क्षेत्र में स्थित है और लखनऊ का सबसे प्रमुख शॉपिंग कॉम्लेक्स है। इसे 1810 में अमजद अली शाह ने बनवाया था यह मार्केट पहले क्वींरस मार्ग पर स्थित था जहां अंग्रेज अपनी गाडि़यां और बग्घी चलाने जाया करते थे।लखनऊ का सबसे प्रमुख चौराहा हजरतगंज चौराहा अब अटल चौराहे के नाम से जाना जनेलगा हैं। आठ सितंबर को नगर निगम की बैठक में इस प्रस्ताव पर महापौर संयुक्ता भाटिया ने मुहर लगा दी है। 

अंबेडकर पार्क उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर मायावती ने लखनऊ के पॉश इलाके में अंबेडकर पार्क बनवाया था। अम्बेडकर उद्यान लखनऊ में स्थित एक दर्शनीय उद्यान वाला स्मारक है।

 यह भीमराव अम्बेडकर की याद में समर्पित है। अंबेडकर पार्क एक सार्वजनिक पार्क है और गोमती नगर, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, में स्मारक है। यह अधिक औपचारिक रूप से डॉ. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन प्रांत स्थल के नाम से जाना जाता है और इसे "अम्बेडकर पार्क" के रूप में भी जाना जाता है।

 पार्क ज्योतिराव फुले, नारायण गुरू, बिरसा मुंडा, शाहूजी महाराज, भीमराव अम्बेडकर, कांशीराम के जीवन और यादों का सम्मान करते हैं और जिन्होंने मानवता, समानता और सामाजिक न्याय के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। यह स्मारक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मायावती ने अपने प्रशासन के दौरान बनाया था। बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व में।स्मारक की आधार शिला पहली बार 1995 में रखी गई थी। इससे पहले पार्क का नाम डॉ. भीमराव अम्बेडकर उद्यान था। सन् 2007 में पार्क के आगे नवीकरण और विकास किया। इसे शुरू में 14 मार्च 2008 को मुख्यमंत्री मायावती ने जनता के लिए खोल दिया था। पूरे स्मारक राजस्थान से लाए गए। यह पार्क लाल बलुआ पत्थर का उपयोग करके बनाया गया है।

राम मनोहर लोहिया पार्क  उत्तर प्रदेश के लखनऊ ज्वालानगर पूर्व में स्थित डॉ राम मनोहर लोहिया पार्क का निर्माण मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल के दौरान करोड़ों रुपये खर्च कर सपा ने राजधानी में बने डॉ. राम मनोहर लोहिया पार्क को प्रदेश का सबसे खूबसूरत उद्यान बनााया राजधानी में गोमती नगर क्षेत्र में बने लोहिया पार्क का निर्माण कार्य बहुुत ही कुशलता पूर्वक किया गया है। इसे देखने के लिए पूरे देश प्रदेेश से लोग आते हैं। इसमें लगे हरे पेड़ पौधे लखनऊ की सुंदरता मेंंं चार चांद लगाते हैं।


जनेश्वर मिश्र पार्क
लखनऊ और एशिया का सबसे बड़ा पार्क यानि जनेश्वर पार्क हैं। लखनऊ में वर्ष 2014 में जनेश्वर मिश्र पार्क का अनावरण हुआ। इस पार्क में पेड़-पौधे,जोगिंग ट्रक, गोल्फ कोर्स, ओपन जिम साथ ही बच्चों के लिए शानदार झूले मौजूद हैं। इस पार्क में सब कुछ इतना भव्य है कि, आप एक बार आने के बाद इस पार्क में बार बार आना पसंद करेंगे।

यह पार्क लखनऊ शहर के गोमतीनगर एक्सटेंशन में लगभग 376 एकड़ में स्थित है...इस पार्क में आप गंडोला नाव का भी मजा ले सकते हैं। पर्यटक इस पार्क में इस पार्क में मिग 21 को देख सकते हैं साथ ही 40 एकड़ की झील में गंडोला नाव का मजा भी ले सकते हैं।यह बोट इटली की अहम विरासत में से एक मानी जाती है जिस जेनेश्वर मिश्रा पार्क में स्थापित किया गया है।
इतना ही नहीं पर्यटक इस झूले में पार्टी भी मना सकते हैं और साथ ही कैंडल लाईट डिनर का आनन्द भी लिया जा सकेगा। ये अपना पूरा एक चक्कर करीब 50 मिनट में पूरा करे सकता है।

मैं तो इंसानियत से मजबूर था तुम्हे बीच मे नही डुबोया" मगर तुमने मुझे क्यों काट लिया!

नदी में बाढ़ आती है छोटे से टापू में पानी भर जाता है वहां रहने वाला सीधा साधा1चूहा कछुवे  से कहता है मित्र  "क्या तुम मुझे नदी पार करा ...