इस संजीवनी को पत्थर चट्टी, गरुड़ पंजा, हत्था जड़ी, लक्ष्मण बूटी आदि नामों से जाना जाता हैं। अक्सर आपलोगों ने इस पौधे को धार्मिक स्थल या मेलों में बिकते हुए देखा होगा। जब आप उनसे पूछेगे की यह क्या हैं। तो एक ही जवाब आएगा "संजीवनी" वैसे यह वह संजीवनी तो नही है जिसकी खोज हो रही हैं। पर यह भी किसी संजीवनी से कम नही इस पर और अधिक शोध की आवश्यकता है। पत्थरों अथवा चट्टानों पर उगने वाली यह वनस्पति गर्मी के दिनों में सूखकर सिकुड़ जाती है, और वर्षा होते ही पुनः पूर्णतः हरी हो जाती है।
इसके इसी गुण के कारण यह लम्बे समय से वैज्ञानिकों और जनसामान्य के लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुयी है। सूखने के बाद पुनः हरा हो जाने के विलक्षण गुण के कारण ही इसे जनसामान्य "संजीवनी बूटी" भी कहा जाता हैं। अन्य पौधों कि तरह यह वनस्पति पानी में डालने से न सिर्फ हरी ही हो जाती है बल्कि पुनः जीवित भी हो जाती है और अनुकूल वातावरण उपलब्ध होने पर बढ़ने (उगने) भी लगती है। पत्थरों के ऊपर उगने के कारण तथा पथरी के रोग में उपयोगी होने के कारण स्थानीय आदिवासी इस वनस्पति को "पत्थरचट्टी" के नाम से भी जानते है। सूखने पर बंद हाथ की मुट्ठी जैसी प्रतीत होने के कारण मध्य प्रदेश के स्थानीय लोग इसे "हत्था जड़ी" के नाम से भी जानते हैं। पक्षी के पंजों जैसे प्रतीत होने वाले इसके शल्कपत्र युक्त पत्तों के कारण कुछ लोग इसको "गरुड़ पंजा" भी कहते है।
ग्रामीण व आदिवासी लोग इसके पौधों को सुखाकर शहरों में अथवा धार्मिक स्थलों या मेलों में बेचने हेतु लाते हैं। सूखे हुए पौधों को पानी में कुछ देर रखते ही वो हरे हो जाते हैं और लोग कौतुहलवश आकर्षित होकर इसको खरीदकर घर में सजाने हेतु ले जाते हैं। लोगो को लुभाने के लिए इसको "रामायण वाली दुर्लभ संजीवनी" के नाम से भी बेचते हैं। जैसा कि उपर्युक्त है कि इस वनस्पति को स्थानीय लोग मूत्राशय कि पथरी के लिए उपयोग करते हैं। इसके साथ ही इसका उपयोग यकृत व गुर्दों के अन्य रोगों में भी उपयोग किया जाता है।
सामान्यतः इसका प्रयोग गर्मी से होने वाले रोगों जैसे नकसीर, जलन, घमौरी, लू लगना आदि में किया जाता है। इसके साथ ही महिलाओं के मासिक धर्म सम्बन्धी विकारों में भी यह बहुत उपयोगी है। यह पेट के रोगों के लिए भी लाभदायक है।
आपके क्षेत्र में इसे किस नाम से जानते है इससे जुड़ी कोई भी जानकारी हो तो अवश्य साझा करें।
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